उत्तराखंड में आज फूलों का त्योहार फूलदेई मनाई जा रही है। पहाड़ों में फूलदेई की धूम है। यूं तो उत्तराखंड जाना ही अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण ही है लेकिन इसके साथ ही देवभूमि को उसके रिवाजों और खासतौर पर प्रकृति से जुड़े त्योहारों के कारण भी जानी जाती है। ऐसा ही एक त्योहार फूलदेई है जिसमें उत्तराखंड के लोग फूलों के साथ प्रकृति का ये सुंदर त्योहार मनाते हैं।
फूलों की खुशबू से महक रही देवभूमि की देहरियां
उत्तराखंड में फूलदेई का त्योहार चैत्र संक्रांति, अष्ठमी से लेकर अप्रैल वाली बैशाखी तक मानाया जाता है। फूलदेइ के दिन पहाड़ में छोटे-छोटे बच्चे हिन्दू समाज के नव वर्ष का स्वागत करते हैं। फूलदेई का त्योहार बेहद ही खास है इसमें जहां एक ओर उत्तराखंड के लोगों का प्रकृति प्रेम झलकता है तो वहीं दूसरी ओर पहाड़ के लोगों का एक-दूसरे के प्रति प्रेम भी दिखता है। इस त्यौहार की मुख्य कड़ी छोटे-छोटे बच्चे होते हैं। जो गांव के तमाम घरों को सजाते और लोगों को एक-दूसरे से जोड़ते हैं।
गांव के हर घर फूले खेलने जाते हैं बच्चे
देवभूमि में फूलदेई से एक दिन पहले से ही बच्चे इसकी तैयारी शुरू कर देते हैं। छोटे-छोटे बच्चे बुरांश, आड़ू, सरसों, फ्योंली और अन्य फूल तोड़कर लाते हैं। जिसके बाद फूलदेई वाले दिन वो गांव के हर घर में फूल खेलने के लिए अपने फूलों की टोकरी लेकर निकलते हैं।
घर की देहरियों पर पहुंचने पर बच्चे फूल देई छम्मा देई जतुक दैला उतके सई… बोलकर देहरियों पर फूल डालते हैं। जिस पर उन्हें चावल, गुड़ और पैसे दिए जाते हैं। इस दौरान बच्चे उस घर में सुख, शांति और समृद्धि बनी रहे इसकी कामना करते हुए गीत गाते हैं। इसके साथ ही ये कामना भी करते हैं कि साल भर घर के सभी लोग स्वस्थ रहें और घर में किसी प्रकार के अनाज की कमी ना हो।
घोघा देवता की सजाई जाती है डोली
उत्तराखंड के कई स्थानों पर बच्चे एक साथ एक समूह में घोघा देवता यानी कि फूलदेई की डोली को भी सजाते हैं और बसंत गीतों के साथ झूम-झूमकर नचाते हैं। इसके साथ ही फूलदेई के आठवें दिन बच्चों द्वारा सभी घरों से भोजन सामग्री व पूजा सामग्री को इकट्ठा किया जाता है और एक सामूहिक भोज तैयार किया जाता है। बच्चों द्वारा इस भोज का भोग सबसे पहले घोघा देवता को लगाया जाता है। जिसके बाद ही बच्चे इसे खाते हैं।
ये है फूलदेई मानाने के पीछे धार्मिक मान्यता
फूलदेई के बारे में कई धार्मिक मान्यताएं भी हैं। एक बार भगवान शंकर तपस्या में लीन हो गए इस दौरान कई ऋतुएं चली गई। ऐसे में देवताओं और गणों की रक्षा के लिए मां पार्वती ने चैत्र मास की संक्रांति के दिन कैलाश पर घोघिया माता को पुष्प अर्पित किए। इसके बाद से ही चैत्र संक्रांति पर फूलदेई का पर्व मनाया जाने लगा।
जबकि गढ़वाल की केदारघाटी में कहा जाता है कि एक बार भगवान कृष्ण और देवी रुक्मिणी केदारघाटी में विहार कर रहे थे। तभी देवी रुक्मिणी भगवान कृष्ण को खूब चिढ़ाती हैं। जिससे भगवान कृष्ण रूठ जाते हैं और कहीं जाकर छिप जाते हैं। तो देवी रुक्मणी उन्हें ढूंढती है लेकिन उन्हें कृष्ण भगवान नहीं मिलते और वो ढूंढ-ढूंढ कर परेशान हो जाती हैं।
तब देवी रुक्मिणी छोटे बच्चों को बुलाती हैं और सबकी देहरियों को फूलों से सजाने को कहती हैं। ताकि बच्चों द्वारा फूलों से स्वागत देख कर भगवान कृष्ण गुस्सा छोड़ दें। बच्चों की फूलों की सजाई देहरी व आंगन देखकर भगवान कृष्ण का गुस्सा खत्म हो जाता है और वो सामने आ जाते हैं। तभी से फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है।
फूलदेई के गीत गाकर बच्चे मनाते हैं त्योहार
कुमाऊं और गढ़वाल में कुछ इस तरह से गीत गाकर फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है।
कुमाऊं में –
- फूलदेई छम्मा देई ,
- दैणी द्वार भर भकार।
- यो देली सो बारम्बार ।।
- फूलदेई छम्मा देई
- जातुके देला ,उतुके सई ।।
गढ़वाल में –
- ओ फुलारी घौर।
- झै माता का भौंर ।
- क्यौलिदिदी फुलकंडी गौर ।
- डंडी बिराली छौ निकोर।
- चला छौरो फुल्लू को।
- खांतड़ि मुतड़ी चुल्लू को।
- हम छौरो की द्वार पटेली।
- तुम घौरों की जिब कटेली।