जैन समाज के दिंगबर संप्रदाय के आचार्य विद्यासागर महाराज ने 17 फरवरी की रात अपना शरीर त्याग दिया। इससे पहले उन्होनें जैन परंपरा के अनुसार, समाधि लेकर उपवास और मौन व्रत धारण किया। आज 18 फरवरी को छत्तीसगढ़ के चंद्रगिरी तीर्थ में दोपहर 1 बजे उनका विधि पूर्वक अंतिम संस्कार किया गया। जैन धर्म में संतजन शरीर त्यागने के लिए समाधि और संधारा परंपरा का उपयोग करते हैं। आइये जानतें हैं संथारा प्रथा क्या है और कैसे होती है समाधि।
क्या होता है समाधि?
जैन धर्म में संत जन शरीर त्यागने के लिए समाधि लेते हैं। जब किसी मुनि को ये अहसास हो जाता है कि शीघ्र ही उनका शरीर छूटने वाला है तो वे इसके पहले विधि पूर्वक उपवास और मौन व्रत लेते हैं, जिसे समाधि कहते हैं। समादि लेने के बाद मुनि न तो किसी से बात करते हैं और न ही जल आदि ग्रहण करते हैं। समाधि की अवस्था में अपना शरीर छोड़ देते हैं।
क्या होता है संथारा?
शरीर त्यागने के लिए जैन धर्म में संथारा परंपरा भी निभाई जाती है। इसे संलेखना भी कहते हैं। इसके अनुसार जब किसी संत को संसार से विरक्ति हो जाए तो वह संथारा के माध्यम से शरीर का त्याग कर सकता है। संथारा कोई स्वस्थ व्यक्ति भी ले सकता है। संथारा को धैर्यपूर्वक अंतिम समय तक जीवन को ससम्मान जीने की कला कहा गया है। जैन धर्म में इसे मनोवैज्ञानिक रुप से मृत्यु वरण करने का तरीका माना जाता है।
क्या होता है संथारा का अर्थ?
जैन धर्म में इस परंपरा के अनुसार देह त्यागने को बहुत ही पवित्र माना जाता है। जैन शास्त्रों में इसे समाधिमरण, पंडितमरण भी कहा जाता है। संथारा का अर्थ है जीवन के अंतिम समय में तप-विशेष की आराधना करना। इसे अपश्चिम मारणान्तिक भी कहा गया है। जैन समाज में इसे महोत्सव भी कहा जाता है। संथारा एक पवित्र परंपरा है जिसके माध्यम से मुनि अपने शरीर का त्याग कर समाज को धर्म पथ पर चलने की प्रेरणा देते हैं।



