प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार अपने फैसलों से देश को चौंका चुके हैं। नोटबंदी से लेकर किसान बिल वापस लेने तक पीएम मोदी कई ऐसे फैसले ले चुके हैं, जिन फैसलों ने देश को चौंका दिया। लेकिन, दोनों ही फैसले उनके लिए मुश्किल साबित हुए और जनता के लिए आफत। पहले नोटबंदी को आतंकवाद, काला धन और नकली नोटों के जाल को खत्म करने के नाम जनता पर थोपा गया और कृषि कानूनों को किसानों से चर्चा किए बगैर ही लागूं कर दिया गया।
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एकतरफा फैसला
अब फिर से पीएम मोदी ने सबको चौंकाते हुए फिर से किसानों से संवाद किए बगैर एकतरफा फैसला सुना दिया। देशभर में एक ही बात हो रही है कि यह सब चुनाव के लिए किया गया है। चुनाव से ऐन पहले इस तरह के फैसले से किसान खुश तो हैं, लेकिन कहीं ना कहीं सरकार की चाल को भी समझ गए हैं
बनी रहेगी गले की फांस!
प्रधानमंत्री की कानूनों को खत्म करने की घोषणा के बाद भी आंदोलन की समाप्ति पर असमंजस बरकरार है। किसान नेता अब न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार को झुकाने की तैयारी कर रहे हैं। राकेश टिकैत, अविक साहा जैसे किसान नेताओं ने कह दिया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सहमति के बिना आंदोलन को समाप्त करने पर कोई निर्णय नहीं किया जाएगा। यह ऐसी स्थिति बन रही है कि जिसमें कृषि कानूनों के समाप्त होने के बाद भी सरकार के गले की फांस बरकरार रहने वाली है। यानी कृषि कानून खत्म होने के बाद भी वह संकट टला नहीं है, जिसे टालने के लिए सरकार ने इतना बड़ा फैसला लिया है।
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सहमत कराया जा सकता था
यदि सरकार बातचीत से इस मामले का हल निकालने की कोशिश करती तो ‘कुछ कदम हम आगे बढ़ें, कुछ कदम तुम आगे बढ़ो’ की नीति पर चलते हुए केवल कृषि कानूनों की समाप्ति पर ही किसानों को सहमत कराया जा सकता था, लेकिन केंद्र सरकार ने एक तरफा कानून खत्म करने का निर्णय लेकर उनसे सौदेबाजी का यह अवसर हाथ से गवां दिया है। माना जा रहा है कि ‘अचानक फैसले लेकर लोगों को चौंकाने वाली’ इस सोच का राजनीतिक नुकसान उठाना पड़ेगा।
मुफ्त बिजली और एमएसपी से बढ़ेगी महंगाई
न्यूनतम समर्थन मूल्य के मुद्दे पर सरकार दोहरे दबाव में होगी। यदि वह किसानों की मांग के अनुरूप सभी फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पूरी फसल की खरीद के लिए तैयार होती है, तो इसके लिए भारी मात्रा में धन की आवश्यकता होगी जो फिलहाल सरकार के पास नहीं है। यदि फसलों के उत्पादन मूल्य को घटाने के लिए बिजली-पानी मुफ्त देने की घोषणा की जाती है तो भी सरकार पर दबाव बढ़ेगा। खुले बाजार में भी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करने पर बाजार में खाद्यान्न के भाव आसमान छूने की संभावना है। इसके कारण महंगाई बढ़ेगी और आम आदमी को भारी कीमत चुकाकर अनाज खरीदना पड़ेगा। इससे भी आम आदमी की सरकार से नाराजगी बढ़ सकती है।
आंदोलन खत्म कराने की पहल
माना जा रहा है कि अगर केंद्र सरकार अमित शाह, वरुण गांधी और सतपाल मलिक जैसे पार्टी नेताओं को आगे कर आंदोलन खत्म कराने की पहल करती, तो इससे पार्टी नेताओं का ही कद बढ़ता। इससे पार्टी चुनाव में यह संदेश भी दे सकती थी कि उसने किसानों और जनता की बात सुनी और उसके हितों को देखते हुए कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया। लेकिन, जिस तरह कानून खत्म कराने का काम किया गया है, उससे यही संकेत जा रहा है कि केंद्र सरकार ने चुनावों में हार के डर से यह निर्णय लिया है। विपक्ष इसका लाभ लेने की कोशिश अवश्य करेगा और चुनावों में भाजपा को इसका नुकसान हो सकता है। इस स्थिति से बचा जा सकता था।
करनी चाहिए थी किसानों से बात
तीनों कृषि कानून देश के 14 करोड़ किसान परिवारों और लगभग 70 फीसदी आबादी की जिंदगी पर सीधा असर डालने वाले थे। इतना बड़ा निर्णय लेने के पहले प्रधानमंत्री को लोगों से बातचीत कर इस मसले पर उनकी राय जानने-समझने की कोशिश करनी चाहिए थी। लेकिन केंद्र सरकार ने किसानों और कृषि वैज्ञानिकों से बातचीत के बिना यह कानून लाने की गलती की। किसान सरकार से लगातार बातचीत करने की बात कर रहे थे। सरकार की ओर से बातचीत की कोई पहल नहीं की गई।
किसानों को गाली
इस पूरे आंदोलन के दौरान भाजपा के केंद्रीय नेताओं से लेकर तहसील और ब्लॉक स्तर तक के नेताओं ने किसानों को आतंकी, खालीस्तानी और माओवादी तक कहा। विदेशी फंडिंग के भी आरोप लगाए गए। किसानों के खिलाफ केंद्रीय मंत्रियों से लेकर भाजपा शासित प्रदेशों के सीएम और मंत्रियों को लगाया गया। लेकिन, अब चुनाव से ठीक पहले कृषि कानून वापस लेने का फैसला यही संदेश दे रहा है कि यह सब सरकार ने चुनाव के लिए किसा है।