दशहरा लगभग देश के हर कोने में मनाया जाता है। लेकिन कुछ स्थान ऐसे हैं जहां का दशहरा खासा फेमस है। इन्ही में से एक है हिमाचल के कुल्लू का दशहरा जिसे देखने के लिए देश के कोने से लोग आते हैं। इसके बाद सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है उत्तराखंड के अल्मोड़ा का दशहरा। जिसे देखने के लिए लोगों की खासी भीड़ जुटती है।
देश में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है कुल्लू का दशहरा
यूं तो देशभर में दशहरा धूमधाम से मानाया जाता है। लेकिन देश में कुछ स्थान ऐसे हैं जहां के दशहरा देखने के लिए लोग देशभर से आते हैं। ऐसा ही प्रसिद्ध दशहरा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू का दशहरा है। कुल्लू का दशहरा बहुत फेमस है यहां दूर दूर से लोग कुल्लू का दशहरा देखने आते हैं। आपको ये जानकर हैरानी होगी की यहां रावण या मेघनाथ का दहन नहीं किया जाता। यहां सिर्फ लंका जलाई जाती है। दशहरे के दिन कुल्लू में ढ़ोल नगाड़ों के साथ देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है।
अल्मोड़ा में रावण के पूरे कुल का होता है पुतला दहन
कुल्लू के दशहरे के बाद देश में फेमस दशहरों की लिस्ट में दूसरा नाम उत्तराखंड के कुमाऊं के अल्मोड़ा के दशहरे का शामिल है। यूं तो कुमाऊं अपने अलग-अलग उत्सवों के लिए काफी प्रसिद्ध है लेकिन दशहरे के दिन अल्मोड़ा की छटा ही निराली होती है।
विजयदशमी के दिन अल्मोड़ा में राम तो कई होते हैं पर इस दिन जलने वाला रावण बस एक ही होता है। लेकिन इस बात को जानने के बाद आप सोच रहे होंगे की इसमें अनोखी बात क्या है ? तो आपको बता दें की अल्मोड़ा में रावण अकेले नहीं जलता उसके साथ उसका पूरा का पूरा राक्षस कुल जलता है।
1697 से चली आ रही है प्रथा
कहा जाता है सन 1697 में चंद शासक उद्धयोत चंद ने अपने महल में सबसे पहले दशहरे का आयोजन किया था। तब से लेकर आज तक दशहरे का आयोजन अल्मोड़ा में हो रहा है। 1697 से अगले डेढ़ सौ से भी ज्यादा सालों तक ये आयोजन शाही ही रहा। माना जाता है कि इस आयोजन में आम जनता की भागीदारी सन 1860 से शुरू हुई। यही वो साल है जब अल्मोड़ा में पहली बार रामलीला का मंचन किया गया और फिर यहीं से निकल कर रामलीला नैनीताल, बागेश्वर पिथौरागढ़ पहुंची।
नवरात्रि से पहले ही शुरू हो जाती है विजयदशमी की तैयारी
अल्मोड़ा के विजयदशमी के इस खास उत्सव में बाद में बदलाव आया। सन 1976 में जब एक मुसलमान शख्स अख्तर भारती ने खुद ही मेघनाद का एक पुतला तैयार कर इस उत्सव में पेश किया। अब अल्मोड़ा की सड़कों में रावण का पुतला अकेला नहीं था रावण के साथ साथ उसका बेटा मेघनाद भी था जिसका दहन किया गया।
फिर धीर- धीरे अगले साल कुंभकर्ण फिर ताड़का ऐसे करते करते अल्मोड़ा के इस खास उत्सव में छह साल के अंदर दर्जन भर से भी ज्यादा पुतले जुड़ गए। तब से लेकर अब तक रावण के पूरे कुल का विजयदशमी पर पुतला दहन किया जाता है। अल्मोड़ा में रामलीला प्रथम नवरात्रि से शुरू हो जाती है। लेकिन इससे पहले यहां विजयदशमी की तैयारी शुरू होती है। राक्षस परिवार के पुतले देश के दूसरे भागों में भी बनाए जाते हैं लेकिन बाकी जगहों की अपेक्षा यहाँ के पुतले कलात्मक और भव्यता से परिपूर्ण होते हैं।
शहर के लोग ही बनाते हैं पुतले
आपको ये जानकर हैरानी होगी की ये पुतले पेशेवर कलाकारों के द्वारा नहीं बनाए जाते बल्कि शहर के लोग ही इन्हें बनाते हैं। फिर चाहे वो किसी भी धर्म और सम्प्रदाय के लोग क्यों ना हों। ये कुमाऊं में साम्प्रदायिक सौहार्द को दर्शाता है। अल्मोड़ा की गली-गली में पुतला निर्माण कमेटियाँ बनायी गयी हैं जो फ्रेम या ढांचा तैयार करते हैं और फिर उन्हीं से पुतले बनाए जाते हैं।
जिसके बाद उन पुतलों में पराल भरकर उन्हें बोरे में सीकर कपड़े से इन पुतलों की आकृति बनायी जाती है। इन पुतलों का चेहरा प्लास्टर आफ पेरिस से बनाया जाता है। अल्मोड़ा के रंग बिरंगे पुतलों को देखकर ऐसा लगता है मानों सालों पुराना घटनाक्रम हमारे सामने जीवित हो गया हो। अल्मोड़ा की रामलीला ने जैसे पूरे देश में रामलीला को एक अलग रूप दिया है वैसी ही छाप इस रामलीला ने यहां के पुतलों पर भी छोड़ी है। इन पुतलों में कूर्मांचल की कलात्मकता साफ साफ झलकती है।