उत्तराखंड में तेइस साल की सियासत का सबब बस इतना भर है कि यहां मुख्यमंत्री बनते ही उसके बदल जाने की तारीखों की भविष्यवाणियां होने लगती हैं। इस मामले में पुष्कर सिंह धामी कुछ खुशनसीब साबित हुए। उनके बनने के वक्त तो कम से कम उनके बदले जाने की भविष्यवाणी सुनी नहीं गई। मौसम बदले तो धामी भी बदले। कभी गर्म कोट में दिखे तो कभी टीशर्ट लोअर में भी। संदेश साफ था कि फिलहाल तो हम ही हम हैं, बाकी सब…
उत्कंठा, महत्वकांक्षा, हसरत, ख्वाहिश, नवाजिश सब छोड़िए, धामी ने ऐसा खूंटा गाड़ा कि कइयों को रिस्पना और बिंदाल के किनारे से निकाल कर पौड़ी, कोटद्वार और हरिद्वार तक भेज दिया।
उधर नितिन गडकरी दिल्ली से देहरादून की दूरी कम करने में लगे हैं। एक्सप्रेस वे बनवा रहें हैं और इधर धामी बुलेट ट्रेन की रफ्तार से दिल्ली दरबार में अपनी हाजिरी लगा आते हैं। दिल्ली और देहरादून के बीच माहौल ऐसा हो चला है मानों राजकपूर के लिए पर्दे पर मुकेश अपनी आवाज दे रहे हों।
सिलक्यारा में सुरंग धंसी तो मलबे के साथ और भी बहुत कुछ आया। मुसीबतें आईं, आलोचनाएं आईं, शिकायतें, मायूसी, सियासत और भी बहुत कुछ आया। शुरुआती दिनों में तो आलस भी आया जब खुद मुख्यमंत्री चुनाव प्रचार करते रहे। लगा मलबा सिस्टम पर पड़ गया लेकिन फिर दिल्ली से फोन आया और देहरादून से धामी आए।
सिलक्यारा में जो मलबा समूची दुनिया के टनल विशेषज्ञों को आंखे दिखा रहा था और फंसे हुए 41 श्रमिकों को मौत का खौफ उसमें अब पाइपें डाली जाने लगीं। ये पाइपें महज मलबे को पार नहीं कर रहीं थीं बल्कि वो उस दहशत के पार झांकने, बोलने बतियाने की आजादी भी दे रहीं थीं जिसे पार पाने में अर्नोल्ड डिक्स जैसों को भी सर्दी में गर्मी का एहसास हो रहा था।
धामी ने रेस्क्यू टीम को एक बात बिल्कुल साफ कर दी थी कि रेस्क्यू हर हाल में होना है और फंसे श्रमिकों को बिना किसी नुकसान के बाहर निकालना है। ये कोर लाइन थी जिसे रेस्क्यू में लगी हर एजेंसी के टीम लीडर को समझा दिया गया था। धामी के लिए दुनिया का सबसे बड़ा और दुरूह रेस्क्यू उनकी नेतृत्व और संगठनात्मक क्षमता के साथ परिस्थितियों के मुताबिक निर्णय लेने की परीक्षा भी थी। धामी ने आशा और निराशा के बीच कई बार यात्रा की। सुबह खुश दिखते तो शाम की प्रेस कॉन्फ्रेंस में मायूसी उनके दावों की चुगली करती।
समस्या ये भी थी कि इस तरह की चुनौती से उत्तराखंड संभवत: पहली बार लड़ रहा था। जो एक्सपर्ट्स थे उनकी विशेषज्ञयता सिलक्यारा की जमीन के सामने बौनी पड़ती दिखने लगती। जिस ऑगर मशीन के जिम्मे एक बारगी को समूचा राहत कार्य सौंप दिया गया वो जब मंजिल तक नहीं पहुंच पाई तो नैराश्य स्वाभाविक था।
हालांकि इस सबके बीच धामी डटे रहे। सिलक्यारा में ही अस्थायी दफ्तर बना दिया गया। रेस्क्यू ऑपरेशन की क्लोज मॉनिटरिंग होती रही। समय गंवाए बिना फैसले होते रहे। नतीजा 17वें दिन सबके सामने था।
इस बीच मलबा पिघलने लगा। अंधेरी सुरंग उजाले की ओर भागने लगी, रफ्तार बढ़ रही थी और परेशानियां कमजोर पड़ने लगी थीं। श्रमिकों ने दिन का उजाला देखा और धामी ने पिघले मलबे की कालिख। धामी ने इस मलबे की कालिख से रोशनाई बना ली और देहरादून लौट आए। राजधानी पहुंचे तो सियासत के दस्तावेजों में अपने गहरे दस्तखत कर गए।