Champawat By Elections Results: मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने चंपावत उपचुनाव जीत लिया है। लेकिन खबर इतनी भर नहीं है। धामी की जीत की खबर से जुड़ी कई और खबरें भी हैं। वो खबरें राज्य में सत्ता में रही पार्टी की जीत की जिजिविषा से जुड़ीं हैं… वो खबरें किसी राजनीतिक पार्टी के लिए किसी चुनाव के सामान्य और पारंपरिक अलिखित विधानों से जुड़ी हैं….वो खबरें लोकतंत्र में विपक्ष के होने और विपक्ष के मजबूत होने से भी जुड़ी हैं। वो खबरें जो चुनावी लकीरों से ऊंचे राजनीतिक व्यक्तित्व से जुड़ी हैं।
इस बात में किसी को दो राय नहीं होनी चाहिए कि पुष्कर सिंह धामी इस राज्य के नए मुस्तकबिल हैं। वो मुस्तकबिल जिसने अपने जीवन की सबसे बड़ी बाजी खेली, जीता भी, हारा भी और फिर जीता…ये लिखने, पढ़ने, कहने, सुनने में जितना आसान लगता है उतना आसान किसी नेता के लिए होता नहीं है। वो भी तब जब नेता युवा हो और अपने राजनीतिक जीवन के किशोर काल में हो।
2017 से 2021 की जुलाई तक त्रिवेंद सिंह रावत के कार्यकाल में उपजे असंतोष और उसके बाद तीरथ सिंह रावत के कार्यकाल के टाइमपास को साइडलाइन करते हुए जब किसी नेता से कहा जाए कि उसे पार्टी को चुनावों में न सिर्फ लेकर जाना है बल्कि सत्ता में वापसी भी करानी है तो किसी भी युवा नेता के लिए इस फैसले को स्वीकार करना आसान नहीं होगा। केंद्र में मोदी सरकार का होना और बीजेपी संगठन के मजबूत होने के बाद आप इस जीत की उम्मीद तो रख सकते हैं लेकिन आपकी जिम्मेदारियां भी उतनी ही बढ़ती हैं।
2022 के विधानसभा चुनावों में सभी का ये आकलन था कि दोनों पार्टियों में कड़ी टक्कर है। फैसला किसी भी ओर जा सकता है। खुद बीजेपी के नेताओं को भी ये उम्मीद नहीं थी कि वो 47 सीटों पर जीत दर्ज करेंगे। फिर ऐसा कैसे हुआ? क्या ये नहीं माना जाना चाहिए कि उम्मीद से अधिक की डिलीवरी के पीछे सरल, सौम्य धामी का व्यक्तित्व था?
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खटीमा में चुनाव हारने के बाद चंपावत से चुनाव लड़ना और चुनाव को चुनाव की तरह लड़ना क्या होता है वो पुष्कर सिंह धामी ने बताया है। बहुत हद तक संभव है कि धामी ने ये बात खटीमा में चुनाव हारने के बाद सीखी हो और यही वजह है कि वो सीएम बनने के बाद चंपावत में एक विधायक पद के उम्मीदवार की तरह लड़ते नजर आए। मतदाताओं को समय देना, सघन जनसंपर्क करना, रोड शो, डोर टू डोर कैंपेन, बड़ी जनसभाएं करना….धामी ने वो सबकुछ किया जो एक आम उम्मीदवार विधायक पद के उम्मीदवार के तौर पर करता है। संभवत: कांग्रेस यहीं चूक गई। जहां एक ओर पुष्कर सिंह धामी खुद चुनाव मैदान में थे तो वहीं उनका संगठन अपनी रणनीतियां बना रहा था लेकिन निर्मला गहतोड़ी मैदान में तो थीं लेकिन संगठन की निष्क्रियता ने उन्हें लड़ाई से बाहर कर दिया था। वो चाह कर भी सीएम धामी को चुनौती नहीं दे पा रहीं थीं।
हालांकि कांग्रेस का ये चुनावी व्यवहार भविष्य में अवश्य ही चर्चा का विषय बनेगा। पार्टी के बड़े नेता प्रचार की अंतिम तारीख तक का इंतजार नहीं कर पाए और निर्मला को अकेला छोड़ कर निकल आए। ये वही पार्टी है जो खुद को लोकतंत्र का सबसे पुराना सिपाही बताती है। हालात ये हुए कि अधिकतर बूथों पर कांग्रेस के बस्ते तक नहीं लगे। ऐसे में कांग्रेस चुनाव के सामान्य नियमों को भी मानना नहीं चाहती थी। वो लड़ाई में रहने के लिए सिर्फ निर्मला गहतोड़ी की ओर देख रही थी। कांग्रेस मानों ये भी नहीं जताना चाहती थी कि वो विपक्ष में ही सही लेकिन है तो सही। कांग्रेस के मौजूदा रणनीतिकारों की ऐसी ही रणनीति से शायद ‘मित्र विपक्ष’ जैसे विशेषण निकलते हैं। फिलहाल सीएम पुष्कर सिंह धामी को राज्य के राजनीतिक इतिहास की सबसे बड़ी जीत के लिए शुभकामनाएं दीजिए। ये समझना मुश्किल नहीं है कि किसी पार्टी को कुल वोटों का 93 फीसदी नहीं मिल जाता। इस मुकाम तक पहुंचने के लिए संगठन के साथ साथ व्यक्ति और व्यक्तित्व भी उतना ही जरूरी होता है।
चंपावत उपचुनावों के परिणामों पर पत्रकार आशीष तिवारी की त्वरित टिप्पणी