देहरादून: चमोली में आई जलप्रलय की घटना के बाद ग्लेशियर एक बार फिर सुर्खियों में हैं। इसके तहत ग्लेशियर की संख्या और उन्हें हो रहे नुकसान पर फिर से चर्चाएं शुरू हो गई हैं। देशभर में हिमालयन रेंज में 9 हजार 575 ग्लेशियर हैं, जिनमें 267 ग्लेशियर पर हर वक्त नजर रखी जाती है। इसके लिए खासतौर पर एक समिति भी बनाई गई है।हिमालय में मौजूद ग्लेशियरों पर काफी पहले से नजर रखी जा रही है। इसके लिए दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज यानी डीसीसीसी समिति बनाई गई है। पहले यह समिति सिर्फ चार ग्लेशियर पर नजर रखती थी, लेकिन अब निगरानी वाले ग्लेशियरों की संख्या 267 हो गई है।
चमोली जिले की नीति घाटी में नंदा देवी ग्लेशियर टूट गया, जिससे बाढ़ आ गई। वैज्ञानिकों का कहना है कि देश में ग्लेशियर की वजह से नुकसान होना आम बात नहीं है, क्योंकि हिमालय में मौजूद ग्लेशियर उत्तर भारत की प्रमुख नदियों के रिजर्व बैंक जैसे हैं। हालांकि, ये ग्लेशियर जलवायु के प्रति बेहद संवेदनशील हैं और जलवायु परिवर्तन का उन पर व्यापक असर होता है। अहम बात यह है कि दुनिया के अन्य ग्लेशियरों की तुलना में हिमालय के ग्लेशियरों के बारे में बहुत कम जानकारी अब तक सामने आई है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि ये ग्लेशियर बेहद दुर्गम स्थानों पर हैं। जानकारी के मुताबिक, भारत सरकार कई अनुसंधान संस्थाओं के माध्यम से हिमालय के ग्लेशियरों की निगरानी करती है। इनमें सबसे अहम बंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान यानी आईआईएससी का दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज यानी डीसीसीसी है।
कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक कुल 267 ग्लेशियर ऐसे हैं, जिन पर खासतौर से नजर रखी जाती है। साथ ही, उन पर शोध भी किए गए हैं। बता दें कि डीसीसीसी के अलावा आईआईटी मुंबई, आईआईटी गांधीनगर, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और स्नो एंड एवलांच स्टडी एस्बलिशमेंट जैसी संस्थाएं भी ग्लेशियर पर नजर रखती हैं। पर्यावरणविद् बताते हैं कि हर साल नवंबर के दौरान बर्फबारी से ग्लेशियर की बर्फ पक्की हो जाती है, लेकिन हालिया बर्फबारी से जमी बर्फ उतनी पक्की नहीं रह पाती, जो धंस जाए।
बता दें कि पर्यावरण के लिहाज से ग्लेशियर का अध्ययन बेहद उपयोगी है। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्र के निचले इलाकों में रहने वालों पर संभावित आपदा के आकलन और पूर्वानुमान के लिए भी इन पर नजर रखी जाती है। जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, अब तक हिमालय में 9575 ग्लेशियर मिले हैं, जिनमें केवल 267 ग्लेशियर ही 10 वर्ग किलोमीटर से ज्यादा बड़े हैं। ग्लेशियर्स की निगरानी में मास बैलेंस सबसे अहम है।
दरअसल, मास बैलेंस सर्दियों में जमा बर्फ और गर्मिंयों में पिघलकर बहने वाली बर्फ के भार का अंतर है। बर्फ का कम होना एब्लेशन कहा जाता है, जबकि बर्फ का अधिक होना एक्यूमिलेशन कहलाता है। मास बैलेंस ग्लेशियर सिस्टम में पानी की उपलब्धता का संकेत होता है। इससे पता चलता है कि कितना पानी नदियों में बहकर जाएगा। इसरो के सैटेलाइट भी ग्लेशियरों पर नजर रखते हैं। दरअसल, हिमालय जैसे दुर्गम इलाकों में पाए जाने वाले ग्लेशियरों के सटीक आंकड़े सैटेलाइट से ही मिल पाते हैं। ऐसे में ग्लेशियरों की निगरानी वाले शोध में सैटेलाइट का दखल बढ़ा है।