उत्तराखंड में शिव पार्वती की बड़ी महिमा है। यहां के त्यौहारों में शिव-पार्वती विवाह, शिव जी को समर्पित हरेला जैसे त्यौहार देखे जा सकते हैं। इन्हीं त्यौहारों में से एक बेहद ही खास त्यौहार सातूं-आठूं का त्यौहार है। इस त्यौहार को धूमधाम से कुमाऊं मंडल में मनाया जाता है।
सातूं-आठूं क्या है और क्यों मनाया जाता है?
सातूं-आठूं उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और कुमाऊं के सीमांत क्षेत्रों में मनाया जाता है। जो हर साल भाद्रपद माह की पंचमी से शुरू होकर अष्टमी तक चलता है। उत्तराखंड में लोगों का भगवान से जीवित रिश्ता है। तभी तो यहां महादेव को भिंज्यू मतलब जीजाजी और माँ गौरा को दीदी के रूप में पूजा जाता है।
अब किस जोड़े के बीच में रूठना मनाना नहीं होता है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार सप्तमी को हमारी गौरा दीदी हमारे जीजाजी शिव से नाराज़ होकर मायके आ गई। अब उन्हें मनाने के लिए अष्टमी के दिन महादेव अपने ससुराल आए। जिसके बाद गौरा दीदी मान गई और शिव के साथ वापस जाने लगी। तो दीदी की विदाई और भिंज्यू की सेवा के रूप में यो पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को कुमाऊँ के सीमांत क्षेत्र में सातूं-आठूं और नेपाल में गौरा महेश्वर के नाम से जाना जाता है।
कैसे मनाया जाता है सातूं-आठूं ?
सातूं-आठूं पर्व में गौरा और महेश की आकृतियां, खेतों में बोई गई फसलों – गेहूँ, धान, तिल, मक्का, मडुवा, भट आदि के पेड़ों से बनाई जाती है। जिन्हें गवांरे या गमार भी कहा जाता है। गौरा की आकृति को फिर साड़ी, पिछौड़ा, चूडियों और बिंदी से सजाया जाता है और ये काम सिर्फ कोई शादीशुदा स्त्री ही करती है। इसके साथ ही महेश को भी कुर्ता, पैजामा और शॉल भी ओढ़ाया जाता है। जिसके बाद दोनों को मुकुट पहनाए जाते हैं।
ये मुकुट उन दम्पतियों के होते हैं जिनकी गाँव में सबसे नई शादी हुई हो। महिलाएं सातूं-आठूं पर्व में दो दिन का व्रत रखती हैं और आठूं या अष्टमी की सुबह भिंज्यू, महेश और दीदी गौरा को बिरुड़ चढ़ाए जाते हैं। जिसके बाद दीदी गौरा को विदा किया जाता है और दीदी गौरा तथा भिंज्यू महेश की मूर्ति को स्थानीय मंदिर में विसर्जित कर दिया जाता है। ये पर्व बिरुड़ पंचमी से शुरू होता है और सातूं-आठूं पर्व के आठ दिन बाद हिलजात्रा शुरू हो जाती है।
क्या है बिरुड़ पंचमी ?
सातूं-आठूं पर्व से पहले भाद्रपद महीने की शुक्ल पक्ष पंचमी को बिरुड़ पंचमी कहा जाता है. इस दिन बिरुड़े भिगाए जाते हैं जिनकी सातूं-आठूं को पूजा होती है। बिरुड़े पांच या सात तरह के अनाजों के मेल से बने होते हैं जिनमें गेहूं, धान, तिल, मक्का, मडुवा, भट,मांस आदि शामिल हैं। इन सबको तांबे के बर्तन में रखकर, गाय के गोबर से पाँच आकृतियाँ बनाई जाती हैं और उन पर दुब घास तथा अच्छ्त पिठ्या लगाने के बाद भिगोया जाता है।
जिसके बाद सातूं के दिन इन्हें पानी के धारे या नौले पर ले जाकर धोते हैं। धोने से पहले नौले या धारे पर पांच जगह टीका लगाया जाता है और पांच या सात पत्तों में इन्हें रखकर भगवान को चढ़ाया जाता है। फिर आठूं के दिन बिरुड़ गौरा-महेश को चढ़ा कर व्रत खोलने के बाद इसे प्रसाद रूप में ग्रहण किया जाता है।