तुम तो धोखे बाज हो…वादा करके भूल जाते हो। इस गाने को उत्तराखंड के सियासी हालातों के हिसाब से ऐसे भी कह सकते हैं…तुम तो धोखेबाज हो…बार-बार दल-बदलू हो। विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। सियासी समर के लिए सभी राजनीतिक दल अपने-अपने जिताऊ योद्धाओं को तलाश रहे हैं। जहां तक उत्तराखंड की राजनीति की बात है, यहां दल बदलना आम बात है। नेता कब अपनी पार्टी छोड़ दूसरे में शामिल हो जाते हैं। कुछ कह नहीं सकते।
नेताओं में कला इतनी कि दूसरी पार्टी में जाते ही पहले वाली को कोसने लगते हैं। अगर फिर से पहली वाली में फायदा नजर आए, तो वापस भी लौट आते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए दल बदलने में एकदम माहिर और रमे हुए नजर आते हैं। चुनाव से पहले दल बदल का खेल का एक राउंड पूरा हो चुका है। अब सभी को चुनाव आचार संहिता का इंतजार है। चुनाव आचार संहिता लगते ही दलबदल और टिकट नहीं मिलने की नाराजगी भी साफ नजर आएगी।
अक्सर ऐसे नेता दल-बदल करते हैं, जिनको या तो पहली वाली पार्टी में कुछ ज्यादा लाभ नहीं मिला या दूसरी में ज्यादा फायदा हो रहा हो। दूसरे वाले दूसरे तरह के होते हैं। दूसरे वाले नेता सत्ताधारी दल के खतरों को भांप कर दल बदलते हैं। उनके काले कारनामों का खुलास करने की धमकी देकर ऐसे नेताओं को राजनीति दल अपनी तरफ मोड़ लेते हैं। उत्तराखंड दल-बदलुओं की मौज भी खूब रही है। जिसने भी पटली मारी, उसने सत्ता की मलाई का खूब आनंद लिया।
कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए सभी नेताओं को 2017 के विधानसभा चुनाव का टिकट दिया गया था। सरकार बनने के बाद मंत्रीमंडल के भी यही दल-बदलू सितारे चमकते नजर आए। यशपाल आर्य, सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, सुबोध उनियाल व रेखा आर्य शामिल हैं। ये अलग बात है कि अब यशपाल आर्य अपने बेटे संजीव आर्य के साथ फिर से कांग्रेस में वापसी कर चुके हैं। कारण चाहे जो भी हो, लेकिन दोनों ही कांग्रेस में भी इसी उम्मीद से आए हैं कि अगर सत्ता मिली तो एक फिर मलाई का आनंद लेंगे। बाकी बचे, अब भी आनंद ले ही रहे हैं।
इस बीच कुछ विधायकों ने भी इधर से उधर का सफर तय किया। इनको भी वहीं खतरा नजर आया। कांग्रेस से भाजपा में शामिल होने वाले पुरोला विधायक राजकुमार को अपनी सीट पर खतरा दिखा तो भाजपा में चले आए। अब ये तय नहीं है कि वो कहां से मैदान में उतरेंगे। निर्दलीय विधाय प्रीतम सिंह पंवार भी सत्ता से खुद को दूर नहीं रख पाए। यूकेडी में रहते वो कांग्रेस में कैबिनेट मंत्री रहे। निर्दलीय जीत तोे कार्यकाल के आखिरी दिनों में भाजपा में शामिल होकर सत्ता के नजदीक आ गए।