क्या आप जानते हैं कि भारत की आजादी में उत्तराखंड ने एक अहम भूमिका निभाई है। यूं ही उत्तराखंड को वीरों की भूमि नहीं कहा जाता। उत्तराखंड ने अपने कई वीर सपूत इस संग्राम में झोंक दिए। चलिए आज आपको रुबरु करवाते हैं पांच उत्तराखंड के वीर सपूतों के किस्सों से।
चंद्र सिंह गढ़वाली
क्या आप उस गढ़वाली सैनिक को जानते हैं जिसने अंग्रेजों की तरफ से पठानों पर हमला करने से साफ साफ मना कर दिया। तारीख थी 23 अप्रैल 1930 जब पेशावर में हज़ारों की संख्या में सत्याग्रही जुलूस निकाल रहे थे तभी एक आवाज आई- गढ़वाली थ्री राउण्ड फायर वहीं उस आवाज को चीरते हुए एक और आवाज सेना ने सुनी गढ़वाली सीज़ फायर, ये आवाज सुनते ही 67 सिपाहियों ने तनी हुई बंदूकें ज़मीन पर रख दी। ये आवाज थी चंद्रसिंह भंड़ारी की जिन्होंने पेशावर कांड करके अपना नाम इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए सुनहरे अक्षरों में दर्ज करा लिया था। ब्रटिश हुकूमत इस सैन्य विद्रोह से बैखला गई पेशावर में कत्लेआम के लिए गोरे सिपाहियों को बुलाया गया और गढ़वाली पलटन को वापस भेज दिया गया जब गढ़वाली पलटन अपनी बैरक छोड़ रही थी तो इस विद्रोह की अमिट कहानी उन्होंने अपनी बैरकों की दीवारों पर लिख दी और इसी के साथ नए सिपाहियों के लिए एक कसम भी लिखी की जो भी हिंदू या मुसलमान पलटन यहां आए वो निहत्थे पठानों पर गोली न चलाए।
इस कांड़ के बाद जिस वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में महात्मा गांधी ने ये कहा था कि अगर चंद्रसिंह जैसे चार लोग मुझे मिल गए तो देश को जल्द आजाद कराया जा सकता है वही महात्मा गांधी पेशावर काण्ड के बाद चंद्र सिंह के लिए बोले- जो सिपाही गोली चलाने से इनकार करता है वो अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है अगर मैं आज उन्हें हुक्मउदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे डर लगा रहेगा कि शायद कल को मेरे राज में भी ऐसा ही करें।
कालू महर
सन था 1857 देश में पहला स्वतंत्रता संग्राम छिड़ा हुआ था कुमाऊं में अभी इसका इतना असर नहीं था लेकिन यहां के आंदोलनकारियों की अगवाई में चंपावत क्षेत्र में इतना विरोध हुआ की चंपावत को अंग्रेजी सरकार ने बगावती इलाका घोषित कर दिया और यहां से सेना की भर्ती तक नहीं करवाई गई। कुमाऊं के इस चंपावत क्षेत्र में बगावत का झंडा लिए सबसे आगे खड़े थे कालू महर।
कालू महर ने अपना एक सैन्य संगठन तैयार कर चांदमारी में स्थित अंग्रेजों की बैरेंकों पर हमला किया ये हमला अंग्रेजों के लिए अप्रत्याशित था अंग्रेज अधिकारी हमले के दौरान वहां से भाग गए और इन क्रांतिकारियों ने उन बैरेंकों को आग के हवाले कर दिया। इसके बाद कालू महर और उनके साथियों को अंग्रेजों ने उनकी दूसरी प्लेनिंग के दौरान गिरफ्तार कर लिया और उन्हें वहीं गोली मार दी गई और उनका घर पटवारियों ने जला दिया ।
अब कालू महर की मौत को लेकर आज भी इतिहासकारों में मतभेद हैं कुछ मानते हैं की उन्हें और उनके साथियों को तब ही गोली मार दी गयी, कुछ कहते हैं कि उन्हें अलग अलग जेलों में रखा गया और बाद में फांसी दे दी गई, कुछ इतिहासकारों का कहना है की कालू महर ने नेपाल पलायन कर लिया। अब इसकी असल सच्चाई क्या है ये कोई नहीं जानता कालू महर की मौत आज भी एक गुत्थी है।
सरला बहन
क्या आप उस महिला स्वतंत्रता सेनानी को जानते हैं जिसने भारतीयों को आजादी दिलाने के लिए अपने ही देश के खिलाफ बगावत कर दी। ये कहानी है इंगलैंड की कैथरीन मैरी हेइलमैन। कैथरीन लंदन में महात्मा गांधी से मिलकर उनके विचारों से इतना प्रभावित हुई की वो अपना देश छोड़कर सिधा भारत आ गई और यहां आकर उन्होंने अपना नाम सरला बहन रख लिया।
अगस्त में जब भारत छोड़ो आंदोलन की आग कुमाऊं तक फैली तो सरला बहन ने भी इस आग को कुमाऊं के लोगों के दिलों में पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया। भारत छोड़ो आंदोलन को बंद करने और जंता को डराने के लिए ब्रिटिश सेना ने अल्मोड़ा में खूब आतंक मचाया। जंता पे तरह तरह के अत्याचार किए गए निर्दोष लोगों पर गोलियां चलाई गई, आंदोलनकारीयों को जेल में ठूँस दिया गया, लोगों के घर नीलाम कर दिए गए।
इस वजह से अल्मोड़ा में परिवारों की स्थिति असहाय हो गई थी ऐसे नाजुक हालातों में सरला बहन गांव गांव घूमकर असहाय परिवारों की मदद किया करती। सरला बहन के दिल में भारतीयों के प्रती इतना प्रेम भाव देखकर ब्रिटिश सरकार उनसे चिढ़ने लगी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।
सरला बहन ने पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तीकरण और कन्याओं को शिक्षित करने के लिए बहुत अभयान चलाए इसी लिए उन्होंने कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की स्थापना की। सरला बहन ही कुमाऊं की पहली शख्श थी जिन्होंने सबसे पहले पहाडों में जंगल बचाने की मुहिम छेड़ी।
बैरिस्टर मुकुन्दी लाल
चमोली जिले में जन्मे मुकुन्दी लाल का आजादी के आंदोलन में अहम योगदान रहा बैरिस्टर मुकुन्दी लाल ने कुली बेगार आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया और साथ ही जब पेशावर कांड के सिपाहियों को अंग्रेजी सरकार राजद्रोह के आरोप में फांसी देना चाहती थी तो इन्ही ने अपनी दमदार बहस के दम पर पेशावर कांड के सभी सिपाहियों के फांसी से बचा लिया।
मुकुन्दी लाल हमेशा से ही उत्तराखंड के विकास के लिए प्रयत्नशील रहे गढ़वाल कमिश्नरी और मौलाराम स्कूल आफ गढ़वाल आर्टस इन्हीं के द्वारा स्थापित किया गया इन्हें उत्तराखंड के पहले और अंतिम बैरिस्टर के रुप में जाना जाता है।
हर्षदेव ओली
क्या आपने काली कुमाऊं के शेर का नाम सुना है। जिनके नाम से अंग्रेज थर थर कांपते थे जिन्हें अंग्रेज मुसोलिनी कहा करते थे। हर्षदेव ओली कुमाऊं में इतने लोकप्रिय थे कि यहां की जनता लोग हर्षदेव के एक इशारे पर अपनी जान कुरबान करने को तैयार रहते थी।
सन था 1930 जब एक बार हर्षदेव देवीधूरा के मेले में पहुंचे। यहां पहुंचते ही विशाल जनसमूह हर्षदेव के स्वागत के लिए खड़ा था। मेले में हर्षदेव ने अंग्रेजों की साम्राज्यवादी नीति और कांग्रेस के स्वतंत्रता प्राप्ति के उद्दश्यों से जनता को रुबरु करवाया। तभी जिला हाकिम को हर्षदेव को मेले से ही गिरफ्तार कर लेने का आदेश मिला लेकिन एक बार फिर अंग्रेजी सरकार हर्षदेव को गिरफ्तार करने में नाकाम रही।
इसके कुछ दिनों बाद कुछ सरकारी अधिकारी पुलिस समेत हर्षदेव के गांव में उन्हें गिरफ्तार करने के उद्देश्य से आए तब हर्षदेव ने खुद ही गिरफ्तार हो जना सही समझा लेकिन जैसे ही हर्षदेव की गिरफ्तारी की सूचना जनता को मिली तो गुस्से में 30,000 लोगों का विशाल जनसमूह उन्हें पुलिस से छुड़ाने के लिए उनके पीछे-पीछे चम्पावत तहसील तक पहुँच गया। रास्ते में एक बार तो वो जनसमूह उत्तेजित होकर पुलिस पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हो गया पर हर्षदेव ने अपने प्रभावशाली व्यक्तित्व और भाषण से जनता को शांत कर दिया।
जब हर्ष देव चम्पावत पहुंचे तो अंग्रेजों ने हर्षदेव को चम्पावत तहसील के पुराने किले में बंद करने की योजना बनाई जिसका पता लगते ही जनता के क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। जनता मिट्टी का तेल और कपड़ों के चिथड़े लेकर तहसील को जलाने निकल पड़ी जब हर्षदेव को इस बात का पता चला तो हर्ष देव ने जनसमूह को शांत करने के लिए कहा- तहसील हमारी राष्ट्रीय संपत्ति है, इसकी क्षति हमारी क्षति है आप कॉग्रेस के लक्ष्यों के सामने रख कर ब्रिटिश सरकार का विरोध करो हर तरह से देश की सेवा करो। हम सब भारतीय हैं। हमें मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करना है अपने खिलाफ नहीं।
ये भाषण सुनते ही जनता शांत हो गई और वापस अपने घरों को चले गयी और हर्षदेव को छः महिनों के कठोर कारावास के साथ पांच सौ रुपये का जुर्माना हुआ।
हर्षदेव कुशाग्र बुद्धि के राजनीतिज्ञ, सफल पत्रकार, लेखक और कवि थे। उनका पूरा जीवन देश-सेवा, अभाव, संघर्ष और राजनैतिक उथल-पुथल में ही बीत था।
उत्तराखंड के वीर सपूतों को भले ही आज का समाज भूल गया हो पर ये वीर उत्तराखंड के लोगों के दिल में हमेशा जीवित रहेंगे।