उत्तराखंड का एक ऐसा मेला जो प्रदेश की राजधानी के अस्तित्व का सबब बन गया है। यह वही मेला है जिसने देहरादून को नाम दिया। जी हां हम बात कर रहे हैं तीन शताब्दी से चल रहे “ झंडा जी ” के मेले की… जितना पुराना प्रचलन इस मेले का है उतनी ही पौराणिक प्रथाएं इस मेले से जुडी है। इस वर्ष झंडा जी का मेला 12 मार्च से शुरू होने जा रहा है ।
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बता दे पंजाब में जन्मे गुरु राम राय महाराज के जन्म उत्सव के तौर पर शुरू हुए यह मेला को आज पूरे भारत ही नहीं बल्कि एशिया के बड़े मेलों में शुमार है कहा जाता है कि गुरु रामराय महाराज ने यहां डेरा डाला था। जिसे उस समय डेरादून कहा जाने लगा, जो बाद में देहरादून कहलाया गया। जानते है झंडा जी का इतिहास।
डेरादून से देहरादून का सफर
सिखों के सातवें गुरु हरराय महाराज के बड़े पुत्र गुरु रामराय महाराज ने अल्पायु में ही खूब ज्ञान अर्जित कर लिया था, छोटी उम्र में ही बैराग धारण कर वह संगठन के साथ भ्रमण पर निकल गए। अपने भ्रमण के दौरान वे 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन दून पहुंचे। माना जाता है कि उनकी प्रतिष्ठा में झंडा मेला की शुरुआत हुई जो आज एक बड़े वार्षिक समारोह का रूप ले चुका है।
देहरादून के खुड़बुड़ा मोहल्ले में गुरु रामराय के घोड़े का पैर जमीन में धंस गया और उन्होंने संगत को यहीं रुकने का आदेश दिया। बताया जाता है कि महाराज ने चारों दिशाओं में तीर चलाए और जहां तक तीर गए उतनी जमीन पर अपनी संगत को ठहरने का हुक्म दिया। गुरु रामराय महाराज के यहां डेरा डालाने के कारण इसे डेरादून कहा जाने लगा, जो बाद में डेरादून से देहरादून हो गया।
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आज भी चिट्ठी से भेजें जाते हैं निमंत्रण
झंडा दरबार साहिब में आज भी करीब 5000 से ज्यादा लोगों के पते दर्ज हैं। सूचना क्रांति के इस युग में भी मेले की सूचना संगत को देने के लिए चिट्ठी भेजी जाती है। पंजाब की पैदल संगत को आमंत्रित करने के लिए दरबार से प्रतिनिधि महंत के नाम का आदेश लेकर बड़ागांव जाता है। इसके अलावा पहले भी लकड़ी की कैची से झंडे जी का आरोहण होता था और आज भी यही परंपरा चली आ रही है।
1675 में पड़ी चूल्हे की नींव
देहरादून में साझा चूल्हे की नींव दरबार साहिब श्री गुरु रामराय के आंगन में वर्ष 1675 में चैत्र पंचमी के दिन पड़ी। यही देहरादून में ऐतिहासिक झंडा मेला की शुरुआत हुई। उस समय देहरादून एक छोटा गांव हुआ करता था। मेले में पहुंचने वाले लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना आसान नहीं था। इसी को देखते हुए श्री गुरु रामराय महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि दरबार की चौखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा ना लौटे।
चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी
धीरे-धीरे झंडेजी की ख्याति दुनियाभर में फैलने लगी। हर दिन झंडेजी के दर्शनों को भीड़ पहुंचने लगी और श्रद्धालुओं के खाने की व्यवस्था के लिए दरबार साहिब के आंगन में सांझा चूल्हा चलाया गया। आज भी यहां हर दिन हजारों लोग एक ही छत के नीचे भोजन करते हैं। जब इस मेले की शुरुआत हुई उस दौर में पंजाब व हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं, लेकिन धीरे-धीरे झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी।
दर्शनी गिलाफ से सजते हैं ‘झंडेजी ‘
मेले में ‘झंडेजी’ पर गिलाफ चढ़ाने की परंपरा है। पंचमी के दिन पूजा अर्चना के बाद पुराने झंडे को उतारकर ध्वजदंड में लगे पुराने गिलाफ,दुपट्टे आदि को हटाया जाता है। जिसके बाद दरबार के सेवक दही, घी और गंगाजल से ध्वजदंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद झंडे जी को गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू की जाती है। ‘झंडेजी ’ पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर सनील के गिलाफ चढ़ाए जाते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है। ‘झंडेजी’ पर गिलाफ चढ़ाने के लिए बुकिंग कराई जाती है। इस बार जालंधर के संसार सिंह को यह सौभाग्य मिला है। बता दे कई साल पहले संसार सिंह के माता-पिता ने बुकिंग कराई थी।
अब तक के महंत
महंत औददास (1687-1741)
महंत हरप्रसाद (1741-1766)
महंत हरसेवक (1766-1818)
महंत स्वरूपदास (1818-1842)
महंत प्रीतमदास (1842-1854)
महंत नारायणदास (1854-1885)
महंत प्रयागदास (1885-1896)
महंत लक्ष्मणदास (1896-1945)
महंत इंदिरेशचरण दास (1945-2000)
महंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन)
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