नैनीताल नाम सुनते ही हरे-भरे पहाड़ों से घिरी चमचमाती झील, लाल रंग का आंचल ओड़े शांत सी शाम और मां नैना का धाम हमारी नजरों के सामने आ जाता है। प्राकृतिक सुंदरता से भरा शहर नैनीताल अंग्रेजों के पसंदीदा हिल स्टेशन में से एक था और आज भी ये शहर कई प्रकृति प्रेमियों और सैलानियों को आकर्षित करता है।
एक जमाने में मिस्ट्री से कम नहीं था नैनीताल
लेकिन क्या आप जानते हैं आज जो नैनीताल सैलानियों से खचाखच भरा रहता है वो एक जमाने में किसी मिस्ट्री से कम नहीं था। क्यों चौंक गए ना लेकिन ये बात बिल्कुल सही है। नैनीताल को कई सालों तक अंग्रेजों से छिपा के रखा गया सिर्फ स्थानीय लोग ही इस जगह के बारे में जानते थे। लेकिन धीरे-धीरे यूरोपीय यात्रियों के बीच इन हरी-भरी पहाड़ियों के बीच एक झील होने की बातें फैलने लगी। लेकिन किसी को पता नहीं था कि इस झील तक कैसे पहुंचा जाए।
कुमाऊं कमिश्नर ट्रेल ने भी नैनीताल को रखा एक राज
सन 1817 में जब अंग्रेजी हुकूमत कुमाऊं और गढ़वाल में कब्जा कर चुकी थी तब कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर जी. जे. ट्रेल थे। कहा जाता है ये नैनीताल की यात्रा करने वाले पहले यूरोपीय थे। लेकिन अब क्योंकि नैनीताल को माता सती की चौंसठ शक्तिपीठों में से एक माना जाता था। तो यहां की धार्मिक पवित्रता को देखते हुए कमिश्नर ट्रेल ने अपनी नैनीताल यात्रा को ज्यादा प्रचारित नहीं किया। ट्रेल ने नैनिताल जैसी जगह और यहां के मंत्रमुग्ध कर देने वाले वातावरण को एक राज ही बना कर रखा।
वो यूरोपीय यात्री जिसने खोज निकाला नैनीताल
पी.बैरन एक अंग्रेज व्यापारी थे। जिन्हें पहाड़ों को एक्सप्लोर करना काफी पसंद था। एक बार उनके दोस्त बैटन ने उन्हें पहाड़ में झील होने की बात बताई। जिसे सुनते ही बैरन ने ठान लिया की वो किसी भी तरह नैनीताल का रास्ता खोज निकालेगा।
इससे पहले भी कई यूरोपीय यात्री इस रहस्यमयी जगह तक पहुंचने का प्रयास कर चुके थे लेकिन कोई भी सफल नहीं हो पाया। क्योंकि यात्री स्थानीय लोगों से इस जगह के बारे में पूछते तो वो लोग ऐसी किसी जगह के होने से ही साफ इंकार कर देते। या फिर पैसे लेकर बीच में ही रास्ता भूल जाने की बात कह देते। जिसके बाद पी. बैरन ने स्थानीय गाइडों कि इस चाल से निपटने की एक योजना बनाई।
नैनीताल पहुंचने के लिए बनाई थी ये योजना
वंडरिंग्स इन द हिमाला पिलग्रिम्स में पी. बैरन ने अपनी नैनीताल पहुंचने के लिए बनाई गई योजना का जिक्र किया है। जिसका अनुवाद पहाड़ पत्रिका में आशुतोश उपाध्याय ने किया है। जिसमें लिखा है कि पी. बैरन लिखते हैं नैनीताल यात्रा में हमारे गाइड का रवैया निहायत असयोगपूर्ण था वो धोखा न दे सकें इसके लिए हमें कुछ जोर-जबर्दस्ती भी करनी पड़ी।
रास्ता नहीं पता जैसे बहाने पहाड़ी लोग खूब बनाते है, खास तौर पर जब आपको कुछ कुलियों की जरुरत हो, ये बहाना बनाएंगे और घर से बाहर नहीं निकलेंगे। हम हिमालय में इतना घूम चुके थे कि पहाड़ों के बीच झील की मौजूदगी के बारे में हमें बेवकूफ बनाना आसान नहीं था और फिर पहाड़ों से उतर रही जल धाराएं हमारा निर्देशन कर रहीं थीं। गाइड जहां तक संभव था हमें गलत दिशा की ओर ले गया जब हमें ये आभास हो गया कि वो धोखा दे रहा है तो हमने एक चाल चली।
स्थानीय के सिर पर पत्थर रख पहुंचे नैनीताल
पी. बैरन लिखते हैं कि उन्होंने गाइड के सिर पर एक भारी पत्थर रख दिया और कहा कि मंजिल पर पहुंचने पर ही इसे उतारा जाएगा। इसके बाद उसके पास मंजिल तक जाने के अलावा कोई और चारा नहीं था। पहाड़ी लोग आमतौर पर बड़े सीधे होते हैं और आप बड़ी आसानी से उन्हें बेवकूफ बना सकते हैं। अगर आप ऐसे गाइड के साथ नैनीताल जा रहे हों जो रास्ता नहीं जानने का बहाना बना रहा हो ये तरकीब बड़े काम की है।
एक बड़ा पत्थर उसके सिर पर रख के कहिए कि इसे नैनीताल तक पहुँचाना है। क्योंकि वहां पत्थर नहीं है उसे ये भी बाताएं कि ये पत्थर गिरे या टूटे नहीं। आपको इस पत्थर की नैनीताल में बहुत जरुरत है। भारी बोझ को ढोने की चिंता में वह जरुर कह बैठेगा कि साहब वहाँ पत्थरों की क्या कमी है और ये बात भला नैनीताल देखे बिना कोई कैसे कह सकता है।
नैनीताल की खूबसूरती को देख किया यहीं रहने का फैसला
हमने भी करीब एक मील चलने के बाद उस भले मानुस के सर का बोझ हटा दिया। क्योंकि उसे रास्ता याद आ चुका था। जिसके बाद गाइड उन्हें नैनीताल ले गया। जैसे ही पी. बैरन ने नैनीताल को पहली बार देखा तो उसकी खूबसूरती में डूब गए। हरे-भरे जंगल के बीच एक चमचमाता चांदी सा ताल यहां की सुन्दरता देखते ही पी. बैरन मंत्रमुग्ध हो गए और उन्होंने यहीं रहने का फैसला किया।