आशीष तिवारी। जो यूपी की जरायम की दुनिया की जरा भी समझ रखते हैं वो विकास दूबे (Vikas Dubey) के यूपी STF के जरिए इंकाउंटर के घटनाक्रम को भी बखूबी समझते होंगे। विकास दूबे अपराधी था या नहीं ये तय करने का काम अदालत का था लेकिन विकास दूबे अदालत की दहलीज तक पहुंच ही नहीं पाया। फिलहाल ये बहस फिर कभी लेकिन विकास दूबे की मौत ने यूपी या फिर कहिए कि पूरे सिस्टम में अपराध, राजनीति और पुलिस के आपसी तालमेल का खुलेआम पोस्टमार्टम कर दिया है।
इस बात में कोई दो राय नहीं है यूपी में अपराध, राजनीति और पुलिस का एक ऐसा गठजोड़ काम करता है जो यूपी के सिस्टम का एक हिस्सा बन गया है। यहां राजनीति के पोषण के लिए अपराध पाला जाता है और पुलिस इस पूरे सिस्टम में कभी पोषण पाती है तो कभी शोषण का शिकार भी होती है। बिकरू गांव में पुलिस के आठ जवानों की हत्या इसी का सबूत है। लेकिन इस बीच याद रखिए कि सिलसिला रुकता नहीं है। काजल की कोठरी में यूपी का जरायम नई कालिख के साथ हर बार नए विकास के चेहरे के साथ सिर उठाता है, उठाता रहा है, उठाता रहेगा।
विकास दूबे का इंकाउंटर यूपी के सियासी गलियारों में फैले अपराध की बेल पर बेहद गहरे पड़े पर्दे को और भी गहरा कर गया। ये ऐसा कीचड़ है जिसके छींटे गोल गुंबद वाली इमारतों पर बेहद गहरे हैं। ADR की रिपोर्ट बताती है कि 2019 में हुए चुनावों में चुने गए यूपी के 80 सांसदों में से 44 सांसद अपराध की पृष्ठभूमि अपने साथ लेकर संसद गए हैं। 2017 के विधानसभा चुनावों में 147 विधायकों ने यूपी विधानसभा की ऐतिहासिक इमारत में आपराधिक इतिहास के साथ कदम रखा।
यूपी का जरायम और यूपी की राजनीति एक दूसरे के ऐसे पूरक हैं कि आपको फर्क करना मुश्किल हो जाता है। यूपी में अपराधी एक ही समय में नेता होता है और एक ही समय में नेता एक अपराधी भी हो रहा होता है। लखनऊ के वीआईपी इलाकों में सफेद कुर्ते पाएजामे में कई ऐसे चेहरे हर सत्ता काल में दिखते रहें हैं जिन्हें देख कर ये तय कर पाना मुश्किल होता है कि उसके चेहरे पर अपराधी की गहरी कालिख पुती हुई है।
इस पूरे सियासी खेल में पुलिस अपने हिसाब से चलती रहती है। पुलिस के पास करने के लिए बहुत कुछ होता नहीं है। पुलिस सत्ता की कठपुतली बनी रहती है।
विकास के मामले में भी यही हुआ है। विकास की मौत से किसी को सहानुभूति नहीं हो सकती है लेकिन विकास के सीने में दबे उन राज का पर्दाफाश होना जरूरी था जो इस सिस्टम के सड़ जाने की गवाही देते। विकास दूबे अगर जिंदा अदालत में पेश हो जाता तो ये पता चल पाता कि किन सफेदपोशों ने, किन खाकीधारियों ने और खद्दर पहने लोगोंने ने उसकी मदद की। उनके चेहरे से नकाब जरूर हटता।
याद कीजिए वो वाक्या जब 90 के दशक में एक राज्यमंत्री की यूपी के एक थाने में एक शख्स गोली मार कर हत्या कर देता है और पूरा थाना अंधा हो जाता है। अदालत में एक भी पुलिस कर्मी इस घटना की गवाही नहीं देता और विकास फलता फूलता रहता है। विकास के इंकाउंटर ने उन सभी रहस्यों पर हमेशा के लिए पर्दा डाल दिया है जो ये बताते कि वो कौन सी सरपरस्ती थी जिसने विकास को थाने में हत्या करने से थानेदार की हत्या तक का दुस्साहस दे दिया। विकास अगर अदालत के कठघरे में होता तो ये पता चल पाता कि उसके आका कौन हैं। कौन है जो विकास के आकाओं के चेहरे बेनकाब नहीं होने देना चाहता है ? कौन है जो एक विकास को मार कर कई और विकास को बचा रहा है? सवाल तो पूछा जाएगा।