उत्तराखंड में भले ही सरकारी मशीनरी पलायन को रोकने के लिए तमाम दावे कर रही हो लेकिन आंकड़ों के आईने में दिखने वाला सच यही है कि राज्य में पलायन तेजी से बढ़ रहा है।
राज्य में 2008 से 2018 तक जितना पलायन हुआ उसकी तुलना में पिछले चार सालों यानी 2018 से 2022 तक में 67 फीसदी अधिक पलायन हुआ है।
Social Development for Communities Foundation की एक ताजा रिपोर्ट में ये तथ्य सामने आए हैं। फाउंडेशन के संस्थापक अनूप नौटियाल ने इस संबंध में इकट्ठा किए गए आंकड़ों को जारी किया है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक राज्य में पलायन के साथ साथ नई चुनौतियां भी खड़ी हो रहीं हैं।
दस बिंदुओं में समझिए रिपोर्ट का सार
- उत्तराखंड में 10 वर्षों (2008-2018) में कुल 5,02,717 लोगों ने पलायन किया जबकि पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में कुल 3,35,841 लोगों ने पलायन किया है।
- उत्तराखंड में पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में वार्षिक आधार पर 83,960 लोगों की तुलना में 10 वर्ष (2008-2018) की अवधि में 50,272 लोगों ने पलायन किया।
- वार्षिक आधार पर तुलना करें तो पहले के 10 वर्षों (2008-2018 में 50,272 प्रतिवर्ष) की तुलना में पिछले 4 वर्षों (2018-2022 में 83,960 प्रतिवर्ष) में प्रति वर्ष 67% की बहुत बड़ी वृद्धि हुई है।
- पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में पहले के 10 वर्ष (2008-2018) की अवधि की तुलना में हर साल 33,688 (83,960 कम 50,272) अधिक लोगों ने पलायन किया है।
- पिछले 10 साल की अवधि (2008-2018) में उत्तराखंड में प्रतिदिन 138 लोगों की तुलना में पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में 230 लोगों ने प्रतिदिन पलायन किया है । इस प्रकार, उत्तराखंड में पिछले 4 वर्षों में प्रतिदिन 92 लोगों (230 कम 138) के पलायन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
- पलायन आयोग के अनुसार दो प्रकार की पलायन श्रेणी हैं – अस्थायी और स्थायी । 2008-2018 की अवधि में 3,83,726 लोगों ने अस्थायी पलायन किया जबकि 2018-2022 की अवधि में 3,07,310 लोगों ने अस्थायी पलायन किया।
- 10 वर्षों (2008-2018) में 1,18,981 लोगों ने स्थायी पालयन किया जबकि पिछले 4 वर्षों (2018-2022) की अवधि में 28,531 लोगों ने स्थायी पालयन किया। वार्षिक आधार की तुलना में स्थायी लोगों की संख्या में उत्साहजनक रूप से 40% की कमी आई है।
- पहले 10 वर्षों (2008-2018) में 70.33% की तुलना में पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में 76.94% लोगों ने उत्तराखंड राज्य के भीतर पलायन किया है । 53.33% ने तो अपने पास के शहर या अपने जिला मुख्यालय में पलायन किया है । हालांकि, यह उत्तराखंड के सभी शहरों और कस्बों में शहरीकरण, वहन क्षमता (carrying capacity) और सीमित अपशिष्ट प्रबंधन, सार्वजनिक परिवहन और आवास की उपलब्धता के दृष्टिकोण से बेहद चुनौतीपूर्ण है।
- 24 गाँव पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में भुतहा गाँव बन गए हैं, वहीं 398 गाँव ऐसे हैं जहाँ लोग पलायन कर बस गए हैं। हालाँकि, 82% गाँव (इन 398 गाँवों में से 326) नैनीताल, देहरादून, उधमसिंह नगर और हरिद्वार जिलों में हैं। यह उत्तराखंड के मैदानी जिलों में गांवों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन का एक स्पष्ट संकेत है।
- यह कहना जल्दबाजी होगी कि स्वरोजगार उत्तराखंड के लोगों के लिए नया चलन बन गया है। इससे पहले 2018 के लिए जारी व्यवसाय/ऑक्यूपेशन डेटा में स्वरोजगार की श्रेणी /कॉलम उपलब्ध नहीं थी, जिसमें अन्य कार्यों का कॉलम था। 2018 में अन्य कार्यों के साथ नियोजित कुल प्रतिशत 8.63% था जबकि 2022 में स्वरोजगार और अन्य कार्यों के कॉलम नियोजित कुल प्रतिशत 8.59% है।
दूसरी अंतरिम रिपोर्ट ने बढ़ाई चिंता
दरअसल Social Development for Communities Foundation की उत्तराखंड में पलायन पर आधारित ये रिपोर्ट सरकारी मशीनरी के लिए चुनौतियों का नया पन्ना खोल रही है।
ये रिपोर्ट बताती है कि राज्य में अब अस्थायी पलायन भी तेज हो रहा है। रिपोर्ट में पिछले 4 वर्षों (2018-2022) में 76.94% लोगों ने उत्तराखंड राज्य के भीतर पलायन किया है । 53.33% ने तो अपने पास के शहर या अपने जिला मुख्यालय में पलायन किया है ।
जाहिर है कि इस अस्थायी पलायन के चलते राज्य के बड़े शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ रहा है। जिला मुख्यालयों और उसके आसपास लोग तेजी से बस रहें हैं। ऐसे में पर्वतीय जिलों में जोशीमठ जैसी स्थिती से इंकार नहीं किया जा सकता है।
पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील उत्तराखंड में इस तरह से तेजी से आबादी का एक स्थान पर इकट्ठा होना किसी बड़ी आशंका को मजबूत करता है।
ऐसे में राज्य में अलग अलग स्थानों की कैरिंग कैपेसिटी और उसके प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को लेकर अध्ययन की गंभीर व्यवस्था को अमल में लाना जरूरी हो गया है।
सरकारी तंत्र इसमें हीलाहवाली करता है तो राज्य में कई और ‘जोशीमठ’ तैयार हो सकते हैं।
‘आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता’
Social Development for Communities Foundation के संस्थापक अनूप नौटियाल कहते हैं कि, उत्तराखंड में 2018-2022 में 2008-2018 के आंकड़ों के मुकाबले वार्षिक आधार पर पलायन विश्लेषण के उपरांत उत्तराखंड सरकार, जिला इकाईयों और सरकार की विभिन्न अन्य एजेंसियों की ओर से आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है।
विभिन्न नीतिगत हस्तक्षेपों और अतिरिक्त संसाधनों के आवंटन के बावजूद राज्य मे पलायन में वृद्धि जारी है। यह उल्लेख किया जाना ज़रूरी है कि उत्तराखंड सरकार ने मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना (MSY) जैसी योजनाओं को शुरू करके रिवर्स माइग्रेशन को सुविधाजनक बनाने के लिए कोविड महामारी के मद्देनजर कई प्रयास किए थे। हालाँकि स्वयं पलायन निवारण आयोग के वर्तमान डाटा के आधार या मैक्रो स्तर पर इसके व्यापक परिणाम दिखाई नहीं देते।
अनूप नौटियाल, संस्थापक, Social Development for Communities Foundation
अनूप नौटियाल के मुताबिक, पलायन निवारण आयोग की दूसरी अंतरिम रिपोर्ट के आंकड़े स्पष्ट संदेश देते हैं कि उत्तराखंड में बढ़े हुए पलायन के पैटर्न और प्रवृत्ति को रोकने के लिए अभी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है। जबकि दूसरी अंतरिम रिपोर्ट में पलायन के कारणों को शामिल नहीं किया गया है, अप्रैल 2018 की पहली अंतरिम रिपोर्ट ने हमें सूचित किया था कि उत्तराखंड में 50.16%, 15.21% और 8.83% लोग पर्याप्त रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की कमी के कारण पलायन कर चुके हैं। यह मान लेना यथोचित रूप से सुरक्षित है कि ये चुनौतियाँ आज भी न केवल मौजूद हैं बल्कि वास्तव में पिछले चार वर्षों के दौरान कहीं अधिक गंभीर हो गई हैं।