हल्द्वानी, योगेश शर्मा – बेशक कई लोगों को इस मुल्क में बदलाव न दिखता हों लेकिंन देश की बेटियां अपनी कामयाबी से साबित कर रही हैं कि बदलते वक्त के साथ.. मुल्क और हालात दोनों बदले हैं। आज हर जगह बेटियां अपना परचम लहरा रही हैं चाहे खेल का मैदान हो या आसमान की उड़ान या फिर शताब्दी जैसी ट्रेन में लोको पॉयलेट का काम। हर जगह आपको बेटिंयां कामयाबी की इबारत पेश करती हुई मिलेंगी।
कुमांऊ मेंं पहली बार 1882 में रेलगाड़ी के सफर का आगाज हुआ था। तब से लेकर आज तक रेलवे में कई बदलाव आये लेकिन करीब 130 साल बाद जो बदलाव देखने को मिला वो काफी गौरवांन्वित करने वाला है। काठगोदाम से दिल्ली तक चलने वाली शताब्दी ट्रेन में 5 बेटियां बतौर लोको पायलट काम कर रही है, उत्तर रेलवे ने पहली बार यह जिम्मेदारी बेटियो के कन्धे पर डाली है।
शताब्दी जैसी ट्रैन में बतौर लोको पॉयलेट तैनात हैं देश की बेटियां रेनू श्रीनिवास, सुनीता कुमारी, अंजू सिंह, रीना और आकांशा । लोको पायलट रेनू श्रीनिवास बताती हैं उनके पापा चाहते थे कि वे लोको पॉयलेट बनें। लेकिन उनके पापा तब दुनिया से चल बसे जब रेनू की उम्र महज दस साल की थी। लिहाजा रेनू ने अपने सपने को साकार करने की ठान ली। कड़े संघर्ष के बाद उन्हें यह मुकाम हासिल हुआ। रेनू कहती हैं रेलवे में लोको पॉयलेट एक जिम्मेदारी भरा काम है। जिसे वे अपने सहयोगियों के साथ पूरा करती हैं क्योंकि बेटिया हर काम कर सकती हैं। रेलवे के आलाधिकारी भी बेटियो की इस कामयाबी से गदगद है।
काठगोदाम स्टेशन के प्रबन्धक चयन रॉय कहते हैं शताब्दी कुमाऊ आने वाली पहली ऐसी वीआईपी ट्रैन है जिसकी संचालन देश की बेटियां संभालती है। राय की माने तो रेलवे को नाज है कि उसकी ट्रेन बेटियों के हाथों मे महफूज हैं। रेनू और उसकी सहयोगियों ने साबित किया है कि अगर बेटियों को मौका दिया जाए तो वे बेटों से इक्कीस निकलती हैं। वे हर चुनौती को न केवल कबूल करती है बल्कि उसे उसके अंजाम तक पहुंचा कर ही चैन लेती हैं। यही वजह है कि जिन कामों को कल तक कठिन बता कर मर्दों ने हथिया रखा था,आज उन कामों को बेटियों ने अपनी काबलियत और हौंसले से आसान बना डाला है।