संवाददाता- भाजपा के सामने आनेवाले विधानसभा चुनाव में चेहरा देना वैसी ही चुनौती बन गया है जैसे लखनऊ के इमामबाड़ा में बने भूलभलैया से सैलानी के लिए बिना गाइड के बाहर निकलना। दरअसल मौजूदा वक्त में अगर भाजपा और कांग्रेस की तुलना की जाए तो चुनावी पिच में भाजपा नेतृत्व की गेंद को बैकफुट पर खेलने को मजबूर है जबकि कांग्रेस फ्रंट फुट पर खेल रही है।
चुनावी वैतरणी के खेवनहार के रूप में कांग्रेस के पास सिर्फ हरीश रावत ऐसे हैं जिनको लेकर पार्टी के भीतर कोई विवाद नहीं है। जाहिर सी बात है जीत का सेहरा भी हरीश रावत के सिर बंधना है जबकि हार की जिम्मेदारी भी उन्हें ही कबूलनी होगी।
जबकि भाजपा के भीतर परिस्थितियां बेहद जुदा हैं। भाजपा में इस वक्त चार पूर्व मुख्यमंत्री हैं। बावजूद इसके भाजपा अब तक राज्य में अपना नेता नहीं चुन पाई है। जबकि 2012 के चुनाव मे भाजपा खंडूड़ी हैं जरूरी का नारा देकर चुनावी मैदान मे कूद गई थी और 31 सीटों पर जीती थी। भाजपा 2017 के चुनाव के लिए किसी चेहरे पर क्यों भंरोसा नहीं कर पा रही ये यक्ष प्रश्न बन गया। हालांकि कहा जा रहा है कि भाजपा के पास फौज से ज्यादा कंमाडर हो गए हैं। ऐसे में अलाकमान को भी नहीं सूझ रहा है कि किस चेहरे पर दांव खेला जाए।
दरअसल केंद्र में जैसे भाजपा सरकार मोदी सरकार हो गई है उसी तर्ज पर सूबे मे भाजपा भी कई खेमों मे बंटी हुई है। हर किसी कि हसरत है सीएम बनने की। किसी का कहना है ये उसका आखिरी इलैक्शन है तो किसी का कहना है कि मुझे पूरा काम करने का मौका नहीं मिला तो किसी का कहना है कि मेरा कार्यकाल सबसे बेहतर रहा तो कोई ये भी कह रहा है कि एक बार मुझे तो आजमाकर देखो। लिहाजा माना यही जा रहा है कि भाजपा को भी यही डर सता रहा है कि अगर चेहरे का रहस्य पहले खोल दिया तो भाजपा के लिए 2017 का विधानसभा चुनाव ऐसा तिलस्म बन कर रह सकता है जिसमें भाजपा खुद भटक कर रह जाएगी।
खबर ये भी है कि भाजपा इस बार अपने तरकश के पुराने तीरों के बजाए नए ब्रह्मास्त्रों का इस्तेमाल करना चाहती है और यही वजह है कि भाजपा राज्य में चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों और मोदी सरकार के नाम पर ही लड़ना चाहती है ताकि गुटों की ऊर्जा की ऊर्जा से सत्ता का फूल खिलाया जाए।