देहरादून। विधानसभा से लेकर लोकसभा और तमाम अन्य मंचों से राजनीतिक दल महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और 33 फीसद आरक्षण की पैरवी तो करते हैं, लेकिन धरातल पर दलों की कथनी और करनी में अंतर नजर आता है। तमाम प्रमुख राजनीतिक दल चुनाव में महिला दावेदारों पर दांव खेलने से हिचकते हैं। उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2012 के आंकड़ों पर गौर करें तो राज्य में किसी भी दल ने महिला प्रत्याशियों पर ज्यादा भरोसा नहीं जताया।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) ने विधानसभा 2012 में दावेदारी करने वाले कुल 788 प्रत्याशियों में 278 के हलफनामों के आधार पर उनका आपराधिक, आर्थिक और अन्य बिंदुओं पर विश्लेषण किया।
आपराधिक और आर्थिक मामले प्रत्याशियों से जुड़े हैं, लेकिन इस विश्लेषण में महिला प्रत्याशियों के प्रति राजनीतिक दलों की अनदेखी साफ झलकती है। आंकड़े बताते हैं कि कुल 788 प्रत्याशियों में से केवल 62(7.9 फीसद) महिला प्रत्याशी थीं।
केवल जिताऊ महिलाओं पर दांव खेलती हैं सियासी पार्टियां
वहीं, पार्टीवार स्थिति पर गौर करें तो कांग्रेस ने 70 में से आठ (11 फीसद), भाजपा ने 70 में से छह (नौ फीसद), उक्रांद ने 44 में से तीन (सात फीसद) और बसपा ने 70 में से तीन (चार फीसद) सीटों पर ही महिला प्रत्याशी मैदान में उतारे। कांग्रेस की आठ में से चार महिला प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की, वहीं भाजपा में एक महिला उम्मीदवार ने जीत दर्ज की।
कुल मिलाकर आने वाले चुनाव में भी पार्टिया केवल जिताऊ महिला दावेदारों पर ही दांव खेलेंगे। महिलाओं को प्रतिनिधित्व का दावा केवल चुनावी मंचों से महिलाओं को लुभाने तक ही सीमित रहता है। इसके बाद इसे लागू करने में कोई दल रुचि नहीं लेता। इसके पीछे पार्टियों के अपने तर्क भी हैं कि महिला दावेदार खुद आगे नहीं आतीं।
इस हकीकत पर गौर करें तो ऐसा नहीं हैं। तमाम महिला नेता लंबे संघर्ष और काम करने के बाद भी मुख्यधारा की राजनीति से दूर ही रह जाती हैं। कारण कोई भी दल उन्हें इस स्तर तक जाने का न जोखिम उठाना चाहता है और न ही उन पर भरोसा कर पाता है। दूसरा पहलू भी है कि राजनीति में दिन-रात की भागदौड़ और आर्थिक लेन-देन जैसे मामलों में महिला नेताओं के साथ सहजता नहीं रहती।
महिला नेताओं को लेकर दलवार स्थिति देखें तो बीते विधानसभा चुनाव तक कांग्रेस इस मामले में भाजपा से मजबूत नजर आती थी। कांग्रेस के निशान पर इंदिरा हृदयेश, अमृता रावत, सरिता आर्य और शैलारानी रावत ने विधानसभा का सफर तय किया। वहीं भाजपा से केवल एक विजया बड़थ्वाल ने जीत दर्ज की थी।
बीते दिनों हुई राजनीतिक उठापटक के बाद अमृता रावत और शैलारानी रावत भाजपा के साथ चली गईं। इस तरह से आगामी चुनाव में महिला नेतृत्व के मामले में भाजपा का पलड़ा कांग्रेस से भारी नजर आ रहा है। वहीं, महिला सुप्रीमो वाली बसपा ने भी उत्तराखंड में महिला नेताओं पर भरोसा नहीं जताया। बसपा में भी महिला नेतृत्व हरिद्वार जनपद में भी केवल निकाय राजनीति तक सिमटता रहा है।
काबिल चेहरे, जिन्हें नहीं मिला मुकाम
भाजपा की बात करें तो कई काबिल और क्षमतावान महिला नेताओं को उनका मुकाम नहीं मिल पाया। दिल्ली विवि छात्र संघ की अध्यक्ष रही दीप्ति रावत समेत श्रीनगर की नेता सुरेखा डंगवाल, रुचि भट्ट, महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष नीलम सहगल, सुशीला बलूनी, रेणु अधिकारी, शांति भट्ट, संध्या डालाकोटि, मंजू तिवारी, शोभा जोशी, रितु डालाकोटि आदि इसका उदाहरण हैं।
कांग्रेस में भी कुछ चेहरों को छोड़ दें तो महिलाओं को मुख्यधारा में लाने से पार्टी परहेज करती रही। शांति जुवांठा, संतोष चौहान, उमा कश्यप, गीता ठाकुर, शिल्पी अरोड़ा, कमलेश कैड़ा, वीणा जोशी आदि इसी का उदाहरण हैं। बसपा में भी कोई बड़ा महिला चेहरा कभी सामने नहीं आया। सुरेंद्र राकेश की पत्नी ममता राकेश ने भी कांग्रेस का हाथ थाम विधान सभा तक का सफर तय किया।