‘ईद-उल-जुहा’ इस्लामिक कैलेंडर के 12वें महीने धू अल हिज्जा की दस तारीख को मनाई जाती है. ईद-उल-जुहा नाम अरबी देशों में लिया जाता है. भारतीय उप महाद्वीप में इस त्यौहार को बकरा-ईद कहा जाता है. ज्यादातर मुसलमान इस दिन बकरे या कई जगह भैंस, ऊट की कुर्बानी देते हैं. ‘ईद-उल-जुहा’ के पीछे अल्लाह की राह में उस चीज़ की कुर्बानी के महत्व को समझाने का मकसद है जो आपको प्यारी हो.
ये है मान्यता
बकरीद मनाने की मान्यता के मुताबिक, अल्लाह ने नबी इब्राहीम का इम्तेहान लेने के लिए उन्हें उनके बेटे इस्माइल को कुर्बान करने का हुक्म दिया. इब्राहीम ने खुदा के हुक्म के सामने बेटे के लिए मुहब्बत को दबाया और उनकी कुर्बानी देने का फैसला किया. उन्होंने अपनी बीवी से कहा कि हमें एक शादी में जाना है, बेटे को तैयार कर दो.
उसके बाद उन्होंने रस्सी और छुरियां ली. उनकी ज़ोजा ने पूछा कि शादी में इन चीजों का क्या काम. जिसपर उन्होंने जवाब दिया कि शादी में कुर्बनी करवाने में मदद करनी पड़ सकती है. इसके बाद वो बेटे को लेकर घर से दूर लेकर गए. उन्होंने बेटे को खुदा का हुक्म बताया. बेटे इस्माइल पिता की बात सुनने के कुर्बानी के लिए तैयार हो गए.
उन्होंने अपने पिता को एक कपड़ा देते हुए कहा, आप इसे अपनी आंखों पर बांध लें. क्योंकि आप बाप हैं. औलाद को कुर्बान नहीं कर पाएंगे. इब्राहीम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली और बेटे की गर्दन पर छुरी चलाई. जब आंखों से पट्टी हटाई तो उन्होंने देखा बेटा सामने जिन्दा खड़ा है. और उसकी जगह एक दुम्बा (सउदी में पाई जाने वाली भेंड़ की नस्ल) कुर्बान हो गया है.
इसके बाद से ही लोग बकरे की कुर्बानी देते हैं. इसलिए हर मुसलमान कुर्बानी से कम से कम तीन दिन पहले बकरे को खरीदकर अपने घर ले आते हैं. ताकि उन्हें उस जानवर से भी मोह हो जिसे वो कुर्बान करने जा रहे हैं.
त्यौहार का पैगाम
कुर्बानी का गोश्त तीन हिस्सो में बांटा जाता है. जिसका एक हिस्सा अपने लिए, दूसरा गरीबों और तीसरा रिश्तेदारों-संबंधियों के लिए होता है. इस त्यौहार का पैगाम है कि दिल की करीबी चीज़ दूसरों की बेहतरी और अल्लाह की राह में कुर्बान कर देनी चाहिए. बहुत छोटे बकरे की कुर्बानी नहीं दी जाती. कुर्बानी के लिए बकरा कम-से-कम दो-चार दांत यानी एक-डेढ़ साल का होना चाहिए.