देहरादून- उत्तराखंड में यूपी की तरह बदलाव की बयार नहीं दिखाई दे रही है। एक अपराध को छोड दिया जाए तो सरकार चाहे माने या न माने दोनों राज्यों के हालात एक जैसे ही हैं। कई मामलों में तो उत्तराखंड यूपी से आगे दिखाई देता है।
उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बात की जाए तो समाजवादी सरकार के राज में खरीदी बसें सड़कों पर चलती दिखाई दे रही हैं लेकिन उत्तराखंड परिवहन निगम का हाल तो कुंभकर्ण की निद्रा वाला है। निगम की नाक तक क्या सिर से ऊपर घाटे का पानी बह रहा है लेकिन मजाल क्या कोई निति निर्धारक निगम को घाटे से उबारने के लिए हाथ-पांव मारे।
आलम ये है कि उत्तराखंड परिवहन निगम की ढाई सौ बसें चालकों की कमी के चलते डिपो मे खड़ी होकर जंक खाने को मजबूर हैं। नतीजतन रोड़वेज को हर महीने 9 करोड़ का घाटा सहन करना पड़ रहा है। पिछले चार महीने मे निगम के सिर पर 36 करोड़ का कर्जा चढ़ गया है जबकि तैनात मुलाजिमों के वेतन के लाले पड़े हुए हैं।
उत्तराखंड रोड़वेज संयुक्त परिषद के महामंत्री रामचंद्र रतूड़ी की बातों पर यकीन किया जाए तो पिछले दो महीनों से कर्मचारियों को पगार नहीं मिली है। बसों की मरम्मत का निर्धारित बजट भी निगम के पास नहीं है लिहाजा हर डिपो में अब बसें खड़ी होनी शुरू हो गई हैं।
घाटे से जूझते उत्तराखंड परिहन निगम की हालत धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। न घर के न घाट के जैसे हालात से जीते परिवहन निगम के खाते में पैसा नहीं है।सड़क पर मासिक पास धारक मुसाफिर परिवहन निगम को कोस रहा है तो नई नवेली बसें चालकों के आभाव में जंग खा रही है।
जो सड़कों पर किसी तरह घिसट-घिसट कर चल रही हैं उनकी मेंटिनेंस के लिए एक नट की जरूरत पड़ जाए तो उसे खरीदने के लिए भी निगम के पास पैसा नहीं है।
ऊपर से लोककल्याणकारी योजनाओ का बोझ निगम के सिर ऐसा है कि अच्छी खासी पेंशन पाने वाले बुजुर्ग मुसाफिर भी मुफ्त सेवा का लुत्फ ले रहे हैं और लाखों रूपए डोनेशन और मंहगी फीस देने में सक्षम परिवार वाली राज्य की बेटी भी सरकार के रहमो-करम पर बिना टिकट खरीदे ही रोड़वेज की बस का सफर कर रही हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि सूबे के रोड़वेज को सरकार बचा पाएगी या घाटे को पूरा करने के लिए जनता की जेब पर ही टैक्स का उस्तरा चलाएगी।