टिहरी- मौण मेला जौनपुर ब्लॉक की संस्कृति की एक अलग पहचान है। राजशाही के जमाने से ग्रामीण इस पर्व को मनाते आ रहे हैं। गुरुवार को सुबह 10 बजे अगलाड़ नदी में विशेष पूजा अर्चना के बाद टिमरू का पाउडर नदी में डाले गए. जिस पर बच्चे, युवा व बुजुर्ग एक साथ मछली पकड़ने के लिए नदी में उतरे। इस बार टिमरू का पाउडर बनाने और मौण डालने की बारी छेजुला सिलगांव पट्टी की है। जौनपुर में मौण मेला मनाए जाने की अनूठी परंपरा है। आपको बता दें यह मेला 152 सालों से आयोजित किया जा रहा है
नरेंद्र शाह ने 1811 में डाली थी मौण, 114 गांव के लोग लेते हैं भाग
टिहरी नरेश रहे नरेंद्र शाह ने 1811 में स्वयं अगलाड नदी में आकर मौण डाली थी,तब से इस मेले को मनाया जाता है। मेले में पटटी सिलवाड,छैज्यूला,आठजयूला,लालूर,इडवालस्यूं जौनसार,उतरकाशी,मसूरी सहित आसपास के 114 गांव के लोग भाग लेते हैं।
प्राकृतिक जड़ी टिमरू की बाहरी छाल को सूखाकर इसका पाउडर बनाते हैं
नदी में प्राकृतिक जड़ी टिमरू की बाहरी छाल को सूखाकर इसका पाउडर बनाते हैं. वहीं छाल के छोटे छोटे टुकडे करके उन्हें सुखाकर घराट में पीसकर बारीक पाउडर तैयार किया जाता है,जिसको मौण कहते हैं। ग्रामीण बडी संख्या में अगलाड नदी में मौण डालकर देर तक मछलियां पकडते हैं। मौण को नदी में डालने से मछलियां पकडने में आसानी होती है,नदी में इस पाउडर डालने से किसी भी जीव जंतु को हानि नहीं पहुंचती है। हर साल अलग अलग क्षेत्र से मौण लाई जाती है,इस बार मौण निकालने और इसे नदी में डालने की बारी पटटी सिलगांव की है,इसकी तैयारी में लोग जुटे हुए हैं।
मौण मेले का आयोजन टिहरी रियासत के वक्त से होता आ रहा
मेले में ग्रामीण मछलियों के कुंडियाड़ा,फटियाडा,जाल या फिर हाथों से पकडते हैं। बता दें कि मौण मेले का आयोजन टिहरी रियासत के वक्त से होता आ रहा है,तब मेले में टिहरी नरेश भी अपनी रानियों और लाव लश्कर के साथ आते थे,इसलिए इस मेले को राजमौण कहा जाता है।
एक बार लगा दिया था प्रतिबंध
एक बार ग्रामीणों में झगडा होने पर राजा ने मौण मेले पर प्रतिबंध लगा दिया था,लेकिन गांवों के प्रतिनिधियों ने मेले का आयोजन शांतिपूण ढंग से कराने का आश्वासन दिया,जिसके उपरांत राजा ने फिर से इसके आयोजन की इजाजत दे दी।
मेले में पहुंचते हैं विज्ञानी और शोधार्थी
एक समय था जब अगलाड नदी में चार मौण मेले आयोजित होते थे. नदी के उपरी भागों में पहले तीन अन्य मौण मेले आयोजित किए जाते थे,जिनमें से दो घुराणु और मझमौण काफी प्रसिद्ध थे. मगर लोगों की घटती दिलचस्पी व पलायन के कारण ये तीनों मेले इतिहास बन चुके हैं। मेले में हजारों ग्रामीणों के अलावा पर्यटक भी काफी संख्या में पहुंचते हैं. इसके अलावा मछलियों की प्रजातियों का अध्ययन कर रहे विज्ञानी और शोधार्थी भी मेले में हर साल पहुंचते हैं।