दैनिक जागरण को दिए बयान में वन संरक्षक अनुसंधान संजीव चतुर्वेदी ने बताया कि प्रदेश में तीन हजार मीटर तक पेड़ों की भरपूर मौजूदगी है। 3-4 हजार मीटर के बीच में बुग्याल लैंड शुरू हो जाते हैं। उसके बाद लाइकेन की दुर्लभ प्रजातियां मिलनी शुरू होती है। स्थानीय भाषा में झूला घास कहलाने वाली लाइकेन का आश्रयस्थल पेड़, चट्टान व पत्थर होते हैं।
प्राचीनतम वनस्पतियों (डायनासोर काल) में शामिल लाइकेन फंगस व शैवाल का मिश्रण होती है। उत्तराखंड के नीति घाटी, तपोवन व चकराता के जंगलों में इसकी मौजूदगी सबसे ज्यादा है। लाइकेन का इस्तेमाल इत्र, डाई, सनक्रीम बनाने के साथ-साथ दक्षिण भारत के व्यंजनों में स्वाद बढ़ाने के लिए किया जाता है। इसके अलावा एंटीसेप्टिक व एंटी बैक्टीरिया जैसे औषधीय गुण भी होते हैं। यही वजह है कि कुमाऊं के रामनगर व टनकपुर से इसकी तस्करी का धंधा भी होता है।
वन संरक्षक संजीव के मुताबिक संरक्षण की सबसे बड़ी वजह यह भी है कि लाइकेन वहीं पनपेगी जहां प्रदूषण की मात्रा नहीं होगी। अब गार्डन बनने तैयार होने से लोगों को पारिस्थितिक तंत्र में इसकी उपयोगिता के साथ आजीविका के साधन के तौर पर इस्तेमाल करने का भी पता चलेगा।
संजीव चतुर्वेदी, वन संरक्षक (उत्तराखंड वन अनुसंधान) ने बताया कि पिछले साल जुलाई में मंजूरी मिलने के बाद डेढ़ एकड़ में देश का पहला लाइकेन गार्डन अब बनकर तैयार हो चुका है। अनुसंधान का उद्देश्य संरक्षण, संवद्र्धन व लोगों को इसके महत्व से रूबरू करवाना है। लाइकेन के संरक्षण को मुनस्यारी सबसे बेहतर जगह है।
अनुसंधान के मुताबिक संक्रमण काल खत्म होते ही इसे आम लोगों के लिए खोल दिया जाएगा। लोकल लोगों के लिए 25 रुपये, छात्रों के लिए दस रुपये एंट्री फीस होगी। इसके अलावा उत्तराखंड के शोधार्थियों से सालाना 800 व बाहर वालों से एक हजार रुपये फीस ली जाएगी।