देहरादून- फीस निर्धारण करने का चाबुक उत्तराखंड सरकार ने मेडिकल कॉलेजों के प्रबंधन को क्या सौंपा सूबे जनता के दिलों में आक्रोश का ज्वार-भाटा उफन पड़ा है। मेडिकल की पढ़ाई करने वाले सड़क पर आ गए हैं तो अभिभावक जीरो टॉलरेंस की राह पर चलती सरकार का मूल्यांकन करने लगी है।
जबकि प्रदेश से लेकर देश की मीडिया निजी मेडिकल कॉलेजों को सौंपे गए फीस उगाही के सरकरी सरंक्षण पर सरकार को कई कोणों से चेता रही हैं, या सीधे शब्दों में कहा जाए तो सरकार को इसलिए लानते भेज रही है कि उसके इस फैसले ने शिक्षा को अमीरों की रखैल बना दिया है।
दरअसल सूबे की सरकार ने फीस वृद्धि के अधिकार से अपना नियंत्रण हटा कर उन अभिभावकों की कमर तोड़ दी है जिनके बच्चों की ख्वाहिश मेडिकल करने की है। जिनकी आमदनी इतनी नहीं है कि वे 19 -24 लाख रूपए सालाना की सिर्फ फीस ही वहन कर सकें। सरकार ने उन बच्चों के परवाज को भी चित कर दिया है जो मेडिकल के आकाश में अपने पंख फैलाना चाहते हैं।
जाहिर सी बात है कि निम्म मध्यमवर्ग और मध्यमवर्ग के नौकरीपेशा लोगों की इतनी आमदनी नहीं होगी कि वे सूबे के मेडिकल कॉलेज में बरस रहे फीस के कड़े चाबुक को अपनी पीठ पर झेल सकें या बैंक की दहलीज पर शिक्षा ऋण के लिए फरियाद ठोक सकें। क्या गारंटी है कि बैंक हर छात्र को सवा करोड़ का लोन दे ।
सवाल ये भी है माना बैंक इतना भारी भरकम लोन छात्र को दे भी दे तो नौकरी लगने के बाद क्या छात्र डॉक्टरी के पेशे से लिए लोन की भारी-भरकम किश्त चुका पाएगा। बैंक किश्तों के बोझ तले दबा डॉक्टर मानवीय तरीके से किसी मरीज का इलाज कर भी पाएगा?
हालांकि मौजूदा वक्त में सरकार का मेडिकल कॉलेजों के पक्ष में खड़ा होना सत्ता की प्राचीर से बाहर खड़ी प्रजा को कतई रास नहीं आ रहा है। ‘हुजूर’ की ये दलील कि,” निवेशकों को हतोत्साहित नहीं किया जा सकता” राज्य के अभिभावकों और छात्रों कोअपनी ख्वाहिशों के मेमने की गर्दन बेरहमी से हलाल करना जैसा महसूस हो रहा है।
ऐसे में जनता सूबे के निजाम और उसके वजीरों के लिए निर्णय पर पीएम मोदी से खुद ही पूछ रही है कि पीएम सर,जब डॉक्टरी की पढ़ाई की फीस आपके निवेशकों ने ही तय करनी है तो फिर नीट जैसी परीक्षा की नौटंकी क्यों ?