नई दिल्ली: सीआरपीएफ, ब्लड कैंसर से जूझ रहे 12 साल के उस बच्चे की मदद कर रही है, जिसका मजदूर पिता अपने बेटे को तिल-तिल मरते देखने के लिए मजबूर हो चुका था। जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों पर वहां के लोग रोजाना पत्थर बरसा रहे हैं, लेकिन सीआरपीएफ अपने इन तमाम चीजों को छोड़ कर देश की रक्षा तो कर ही रही है। इंसानियत और समाज के प्रति अपने दायित्वों का भी निर्वहन कर रही है।
हमारे सुरक्षाबल जो रोजाना पत्थरबाजी का शिकार भी बनते हैं और मजबूरी में फंसे कश्मीरियों की मदद के लिए हर वक्त भी तैयार रहते हैं। ये अल्फाज उस मजबूर पिता के हैं, जो अपने बेटे को ब्लक कैंसर से तिल-तिल मरता देख रहा था। श्रीनगर से सटे एक छोटे से कस्बे में रहने वाले मंसूर वो शख्स ह,ैं जिन्होंने कश्मीरियत की बात करने वाले पत्थरबाजों और उनके हमदर्दों की सच्चाई को बेहद करीब से देखा है।
मंसूर की कहानी और उसके लिए देवदूत बनी सीआरपीएफ को लेकर कई मीडिया रिपोर्ट सामने आ चुकी हैं। अपनी जिंदगी के बीते हुए पन्नों को पलटते हुए बताते हैं कि नुसरत से निकाह के बाद हम कई सालों तक औलाद के सुख से मरहूम रहे। सालों की मिन्नत के बाद हमें अल्लाह ने एक औलाद दी। इसी वजह से हमने अपने बेटे का नाम आमीन रखा। कश्मीर के हालात कभी भी हमारे लिए मुनासिब नहीं रहे, बावजूद इसके मैं मजदूरी कर किसी तरह अपने परिवार का पेट पालता रहा।
तमाम दुश्वारियों के बावजूद आमीन का मुस्कुराता चेहरा हमारी हर तकलीफ को दूर कर देता था। पता नहीं, किसकी नजर हमारे आमीन को लग गई। वह बीमार हुआ और बहुत बीमार होता चला गया। इधर-उधर खूब इलाज कराया, लेकिन बीमारी का पता नहीं चला। एक दिन साहब ने बताया कि आमानी को ब्लड कैंसर है। उसके इलाज के लिए लाखों रुपए चाहिए होंगे। बात जिगर के टुकड़े की थी, उसके इलाज के लिए एक-एक करके सब कुछ बेच दिया।
अब उसके पास कुछ नहीं बचा था। बेटे का इलाज जारी रखने के लिए वो दर-दर भटक रहा था। मंसूर का कहना है कि कश्मीरियत की दुहाई देने वाले हर शख्स का दरवाजा मैंने खटखटाया, लेकिन कहीं से मदद नहीं मिली। मैं पूरी तरह से टूट चुका था, मेरे पास अब ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे बेचकर मैं आमीन के इलाज को जारी रख पाता। मोहम्मद मंसूर ने बताया कि एक दिन मैं बेहद निराश होकर अपने घर लौट रहा था, दिमाग में एक ही बात थी कि आमीन की दवाइयों का रुपया कहां से आएगा।
इसी बीच, सीआरपीएफ की एक बख्तरबंद गाड़ी में मैंने मददगार के बारे में पढ़ा। मैंने पहले भी कुछ लोंगो से मददगार के बारे में सुन रखा था, लेकिन घाटी के हालात ऐसे थे कि मैं कभी सीआरपीएफ के पास जाने की हिम्मत और भरोसा नहीं जुटा पाता। लेकिन, अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था। किसी तरह सीआरपीएफ के कैंप पर पहुंचा और अपने हालात के बारे में सीआरपीएफ के अधिकारियों को बताया। सीआरपीएफ के अधिकारियों ने न केवल मेरी बात बेहद हमदर्दी से सुनी, बल्कि मेरी मदद करने का वादा किया।
उसी दिन शाम को सादे कपड़ों में सीआरपीएफ के कुछ लोग मेरे घर आए। मेरे हालात की तस्दीक करने के बाद उन्होंने कहा कि अब आमीन के इलाज की जिम्मेदारी उनकी है। मैं शुक्रगुजार हूं सीआरपीएफ का कि अब मुझे आमीन के इलाज के लिए किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत नहीं पड़ रही है। आमीन की सेहत भी पहले से ठीक लगने लगी है। इतना ही नहीं, सीआरपीएफ की मदद से अब उसे रोजाना काम भी मिल रहा है, जिससे वह अपने परिवार की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा कर पा रहा है। इस घटना के बाद मुझे तो समझ में आ गया है कि कश्मीरियत के सच्चे रखवाले पत्थर उठाकर सड़क में कूदने वाले लोग नहीं, बल्कि हर वक्त हमारी मदद को खड़ी सीआरपीएफ है। मुझे यकीन है कि इस सच को जल्द ही कश्मीर में रहने वाला शख्स जल्द ही समझ जाएगा, जिसके बाद कश्मीर के अमन को ये झूठे पत्थरबाज भी नहीं रोक पाएंगे।