देहरादून : उत्तराखंड के कई पारंपरिक त्यौहार हैं. जिनमे से एक है घी त्यार..जी हां आज उत्तराखंड का त्यौहार घी त्यार है. प्रकृति और किसानो का उत्तराखंड के लोक जीवन में अत्यधिक महत्व रहा है. सौर मासीय पंचांग के अनुसार सूर्य एक राशि में संचरण करते हुए जब दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उसे संक्रांति कहते हैं।
इस तरह बारह संक्रांतियां होती हैं .इस को भी शुभ दिन मानकर कई त्यौहार मनाये जाते हैं और इन्ही त्यौहार में से एक है “घी त्यार”. उत्तराखंड में “घी त्यार” क्यों मनाया जाता है ?
उत्तराखण्ड में हिन्दी मास (महीने) की प्रत्येक १ गते यानी संक्रान्ति को लोक पर्व के रुप में मनाने का प्रचलन रहा है। उत्तराखंड में यूं तो प्रत्येक महीने की संक्रांति को कोई त्योहार मनाया जाता है। भादोमहीने की संक्रांति जिसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं। इस दिन सूर्य “सिंह राशि” में प्रवेश करता है और इसलिए इसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं। उत्तराखंड में भाद्रपद संक्रांति को ही घी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। यह त्यौहार भी हरेले की ही तरह ऋतु आधारित त्यौहार है, हरेला जिस तरह बीज को बोने और वर्षा ऋतू के आने के प्रतीक का त्यौहार है. वही “घी त्यार” अंकुरित हो चुकी फसल में बालिया के लग जाने पर मनाये जाने वाला त्यौहार है.
आपको बता दें कि ये त्यौहार उत्तराखंड के खेती बाड़ी और पशु के पालन से जुड़ा हुआ एक ऐसा लोक पर्व है. जो की जब बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में बालियाँ आने लगती हैं तो किसान अच्छी फसलों की कामना करते हुए ख़ुशी मनाते हैं। फसलों में लगी बालियों को किसान अपने घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर या दोनों और गोबर से चिपकाते है. इस त्यौहार के समय पूर्व में बोई गई फसलों पर बालियां लहलहाना शुरु कर देती हैं। साथ ही स्थानीय फलों, यथा अखरोट आदि के फल भी तैयार होने शुरु हो जाते हैं।
पूर्वजों के अनुसार मान्यता है कि अखरोट का फल घी-त्यार के बाद ही खाया जाता है। इसी वजह से घी तयार मनाया जाता है.
उत्तराखंड में “घी त्यार” का महत्व
उत्तराखंड में घी त्यार किसानो के लिए अत्यंत महत्व रखता है और आज ही के दिन उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमाऊनी सभ्यता के लोग घी को खाना जरुरी मानते है. क्योंकि घी को जरुरी खाना इसलिए माना जाता है क्युकी इसके पीछे एक डर भी छिपा हुआ है.
ये है मान्यता
पहाड़ों में यह बात मानी जाती है कि जो घी संक्रांति के दिन जो व्यक्ति घी का सेवन नहीं करता वह अगले जन्म में घनेल (घोंघा) बनता है इसलिए इसी वजह से है कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है.यहां तक उसकी जीभ में थोड़ा सा घी रखा जाता है. इस दिन हर परिवार के सदस्य जरूर घी का सेवन करते है जिसके घर में दुधारू पशु नहीं होते गांव वाले उनके यहां दूध और घी पहुंचाते हैं. बरसात में मौसम में पशुओं को खूब हरी घास मिलती है. जिससे की दूध में बढ़ोतरी होने से दही -मक्खन -घी की भी प्रचुर मात्रा मिलती है.
इस दिन का मुख्य व्यंजन बेडू की रोटी है। (जो उरद की दाल भिगो कर, पीस कर बनाई गई पिट्ठी से भरवाँ रोटी बनती है) और घी में डुबोकर खाई जाती है। अरबी के बिना खिले पत्ते जिन्हें गाबा कहते हैं, उसकी सब्जी बनती है