जाहिर हैं सूबे की सत्ता से बेदखल हो चुकी कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की उनके कंधों पर जिम्मेदारी है। क्योंकि सदन में कांग्रेस के पास सिर्फ 11 विधायक हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर इतना बड़ा फैसला लिया गया और किशोर उपाध्याय को कानो-कान खबर न हुई।
हरीश रावत की माने तो सबके परामर्श से ही किशोर उपाध्याय को प्रदेश अध्यक्ष के पद से हटाया गया। लेकिन मुद्दे की बात ये है कि अगर इसके लिए सबने सलाह-मशविरा किया तो किशोर और उनके करीबियों को इस बात की भनक क्यों नहीं लगी।
क्या किशोर की टीम में भी उनका एक भी विश्वासपात्र नहीं था, या फिर किशोर का खुफिया तंत्र ही खल्लास हो गया है, या फिर इसके पीछे सिर्फ और सिर्फ हरदा ही हैं। क्योंकि हरदा की ये दलील कि, सबकी सलाह लेकर ही किशोर को पद से हटाया गया कांग्रेस के अंदरूनी लोकतंत्र के खांचे में फिट नहीं बैठ रही है। क्योंकि आलाकमान भी एक बार जरूर किशोर को विश्वास में लेता। बहरहाल किशोर अब हाशिए पर हैं और प्रीतम पूरे पेज पर ।
हालांकि किशोर का हटना तो तभी तय हो गया था जब प्रदीप टम्टा राज्य सभा गए और हरदा से नाराज होकर किशोर कोप भवन में। उसके बाद सरकार के फैसलों पर राज्य संगठन सुप्रीमो किशोर के सुलगते सवाल, और सरकार प्रमुख के जी को जलाती चिट्ठियों का मीडिया के मंच में बेपर्दा हो जाने से सरकार कई बार असहज हो उठे।
नतीजा सबके सामने हैं किशोर अपने सियासी बड़े भाई का विश्वास खो चुके हैं और हरीश अपने उस हाथ को जिसने हरीश रावत के लिए कभी नरायाण दत्त तिवारी से भी पंगा मोल ले लिया था।
बहरहाल मजबूत सियासी जोड़ी के टूट जाने पर आज या तो दोनों नेताओं को मलाल होगा या फिर दोनो दिग्गज सोच रहे होंगे जो होता है अच्छे के लिए होता है कर्तव्य पथ पर बढ़ना ही योद्धा का काम है।