आशीष तिवारी। कारोबारी प्रकाश पांडेय की मौत की चुप्पी सरकारी सिस्टम के सामने कई चीखते सवाल छोड़ गई है। प्रकाश पांडे की मौत न सिर्फ सरकारी तंत्र के निकम्मेपन की पोल खोलती है बल्कि एक आम इंसान से उसकी दूरी का सबूत भी देती है। आप और हम चाहें कुछ भी कर लें लेकिन प्रकाश पांडे अब वापस नहीं आएंगे। ये जरूर कहा जाएगा कि आत्महत्या कोई चारा नहीं होता लेेकिन जो शख्स पिछले एक साल से दाने दाने को मोहताज होने की ओर धीरे धीरे बढ़ता गया और लगातार सिस्टम से फरियाद की आवाज ऊंची करता गया इसके बावजूद सिस्टम उससे बीपीएल कार्ड की मांग करता रहा। क्या ये प्रकाश पांडे का कसूर था कि वो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन नहीं करता था या फिर उसे फरियाद से पहले गरीबी रेखा से नीचे चले जाना चाहिए था। या फिर जो गरीबी रेखा से ऊपर हैं उन्हें फरियाद का हक नहीं है।
प्रकाश पांडे चीख चीख कर कहते रहे कि उन्हें जीएसटी और नोटबंदी के बाद से लगातार घाटा हो रहा है। ट्रांसपोर्ट के व्यापार में सारी कमाई ट्रकों की किश्त चुकाने में ही चली जा रही है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक एक शख्स गुहार लगाता रहा और सिस्टम उससे गरीब होने का प्रमाण पत्र मांगता रहा। हमारे सियासतदानों पर ऐसी बेशर्म राजनीति का चस्का है कि कैबिनेट मंत्री एक मरते शख्स की आहों से निकालकर राजनीतिक साजिश की बू सूंघते रहे। सत्ता का नशा ऐसा कि सत्ता में बैठी पार्टी के कार्यकर्ता सांस दर सांस आती मौत को भी नाटक समझते रहे।
क्या खूब सिस्टम बनाया है। आइए, सडांध मारते सिस्टम से मुंह छुपा कर प्रकाश पांडे की मौत से उपजे अंधेरे से लड़ने के लिए बीपीएल कार्ड बनवाया जाए। मौत के ‘नाटक’ की रिहर्सल की जाए। सल्फास को अपने खेतों में उगाया जाए।