देहरादून- हो सकता है आने वाले दिनों में सूबे में अच्छे दिन हों।एक संस्कृति विकसित हो जाए और राज्य की नई नस्ल पुरखों की तरह खेती बाड़ी कर उत्तराखंड की समृद्धि में अपना योगदान दे। सरकार जहां कृषि शिक्षा पर जोर देने की बात कर रही। दरअसल 60 और 70 दशक में राज्य की जिस आबादी ने सहूलियतों के आभाव के चलते पहाड़ की पगडंडियों से नीचे उतर कर मैदानों की ओर रुख किया उसमें से ज्यादातर की अगली पीढी अपनी जड़ों को बिसर गई है। महनगरों और नगरों की भीड़ में खोई दो कमरों के फ्लैट में रहने की आदी हो चुकी वो आबादी पिकनिक के लिए ही अब कभी कभार तीज-त्यौहार और शादी-ब्याह के मौके पर ही पहाड़ों की अोर रुख करती है। उस आबादी को नहीं मालूम की उसकी जड़ों की बोली-भाषा क्या थी,उसके रीति-रिवाज क्या हैं या उसके पूर्वजों ने कैसे उनके अग्रजों को पाला-पोषा होगा। उन्हें नहीं मालूम की जब बाजार मे नोट चलता था तो पहाड़ गांवों में वस्तु विनिमय होता था और जिंदगी खुशहाल थी। नमक,गुड और कपड़े के लिए ही दूर के बाजार जाया जाता था और वहां भी खेती का राशन और पशुधन से अर्जित धी का बोलबाला था। मेहनतकश पहाड़ियों की मेहनत से पहाड़ के छोटे खेत कभी खाली नहीं रहते थे। कुछ न कुछ फसल हर बार दिखाई देती थी। धान से लेकर दाल,मसाले सभी कुछ पहाड़ के खेत देते थे। लेकिन शिक्षा और चिकित्सा ने पहाड़ों को रीता कर दिया। आज खेत-खलिहान बंजर पड़े हैं पगडंडियों पर झाड़ी उगी है और उन पर जंगली जानवरों का कब्जा है। ऐसे में अब लगता है कि सरकार को कुछ समझ मे आ गया है। दरअसल ये बात इसलिए कही जा रही है कि सूबे के मुखिया ने जब आईएएस वीक में अधिकारियों से बात कर रहे थे तो इस बात पर भी चर्चा कर रहे थे कि नई पीढ़ी को खेती के प्रति जागरूक करना होगा । जिसके लिये विद्यालयों में कृषि की शिक्षा पर भी ध्यान देना होगा। सीएम ने अधिकारियों को विकास का पाठ पढाते हुए कहा कि शिक्षा में बदलाव की दरकार है। लिहाजा यह प्रयास होना चाहिए कि छात्रों को उनकी दक्षता के मुताबिक इण्टर के बाद से ही तकनीकि शिक्षा उपलब्ध करायी जाय। सोच अच्छी है लेकिन रीते हो चुके पहाड़ों पर उम्मीद की फसल लहराएगी इस पर अभी कुछ कहा नहीं जा सकता।