देहरादून- सरफरोश फिल्म का एक गीत आपने जरूर सुना होगा ‘जिंदगी मौत न बन जाए संभालो यारों’ सूबे में जीवनदायनी नदियों के भी कुछ ऐसे ही हाल हैं। तय है कि अगर हम अब भी न चेते तो आने वाले वक्त में हमारी नस्लें बूंद-बूंद पानी की मोहताज हो जाएंगी।
नादियों पर बारीकी से नजर रखने वाले जानकारों की माने तो सूबे में तक़रीबन चालीस फीसदी नदियों के वजूद पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है।
जिन नदियों में पहले पूरे साल ग्लेशियरों की मदद से पानी बहा करता था आज हालात ये है कि वो जीवनदायनी नदियां मौसमी नदियां बनती जा रही हैं। ये गंभीर सवाल बीते रोज शुक्रवार को ग्राफिक एरा हिमालय विश्वविद्यालय में आयोजित दो दिवसीय युसर्क राज्य विज्ञानं और प्रौद्योगिकी सम्मलेन में सामने आया।
सम्मलेन के प्रथम दिन उत्तराखंड की नदियां, तालाब और अन्य जलस्त्रोतों के बारे में चर्चा हुई।सम्मलेन के आयोजक और युसर्क के निदेशक प्रोफेसर दुर्गेश पंत ने कहा वे देहरादून में रिस्पना और अल्मोड़ा की कोसी नदी के पुनर्जीवन पर अपनी संस्था के साथ काम कर रही है।
प्रोफेसर पंत ने कहा कोसी नदी के ज्यादातर जल स्रोत सूख गए हैं। जबकि देहरादून की ऋषिपर्णा(रिस्पना) नदी का वजूद खत्म होने के कगार पर है। हालांकि आज भी देहरादून के कई इलाकों की आबादी रिस्पना नदी के गंदे पानी को ही पीने को मजबूर है। जबकि रिस्पना के पानी में इ –कोली बैक्टीरिया पाया गया है जो पेट के रोगों की जड़ है। वहीं मेड संसथा के अभिजय नेगी ने ने रिस्पना का स्वरुप बिगाड़ने का ठीकरा नदी किनारे अतिक्रमण के सिर फोड़ा।
सम्मेलन में कुमाऊँविश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे एस रावत ने बताया की अल्मोड़ा की कोसी नदी जो ग्लेशियर के पानी से भरी रहती थी अब मौसमी नदी में तब्दील होती जा रही हैं। कोसी नदी के लम्बाई 60 वर्ष पहले 225 किलोमीटर थी जो अब घटकर 41 किलोमीटर रह गयी हैं।
वहीं कुमाऊँ विश्वविद्यालय के ही प्रोफेसर सी सी पंत ने नैनीताल के प्रसिद्ध नैनी तालाब के हालात से रूबरू करवाया। प्रोफेसर पंत ने कहा कि लगातार “ड्राई सीजन” रहने की वजह से तालाब का वाटरलेवल लगातार गिर रहा हैं।
प्रोफेसर सी सी पंत ने इसकी एक बड़ी वजह बताते हुए कहा कि नैनी तालाब में हर साल करीब 69 घन मीटर मलवा और गरडा समां रहा हैं। जो झील की पारिस्थिकी को प्रभावित कर रहा है। प्रोफेसर पंत ने कहा झील को रिचार्ज करने वाली सूखाताल अतिक्रमण की चपेट में हैं। उन्होंने बताया की पड़ोस की भीमतालझील भी लगातार सिकुड़ रही हैं। झील तीस किलोमीटर से सिकुड़कर 25 किलोमीटर ही रह गयी हैं।