सम्पादकीय : अपराधियों का धार्मिक ध्रुवीकरण, भीड़ तंत्र का इंसाफ, भस्मासुर पैदा करता तंत्र, खामियाजा हमें ही उठाना पड़ेगा । - Khabar Uttarakhand - Latest Uttarakhand News In Hindi, उत्तराखंड समाचार

अपराधियों का धार्मिक ध्रुवीकरण, भीड़ तंत्र का इंसाफ, भस्मासुर पैदा करता तंत्र, खामियाजा हमें ही उठाना पड़ेगा ।

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संपादकीय

बसंत निगम

सत्ता और सियासत में धार्मिक ध्रुवीकरण ,तुष्टिकरण , अपराधियों को संरक्षण देना आदि इत्यादि आरोप प्रत्यारोप कोई आज का खेल नहीं है ।ये सियासत के पैदा होने के दौर के साथ ही शुरू हो गया था । हालांकि उस दौर में भी इसका जमीनी फायदा किसी भी जाति धर्म को नही मिला, किंतु गांधी की सर्व धर्म समभाव की विचारधारा से इतर एक और विचारधारा तत्कालीन राजनीति में पैदा करने की पुरजोर कोशिशें हो रही थी ।
क्योंकि गांधी नेहरू पटेल एक समग्र भारत का जहां सर्व धर्म समरसता हो और सर्व जाति प्रेम के साथ सामाजिक और आर्थिक उत्थान में सहभागी हो और साथ बढ़ें साथ चलें , के सिद्धांत पर चल कर आगे बढ़ने का विचार रखती थीं ।
अब क्योंकि गांधी नेहरू पटेल से इतर कोई धारा दिखती नहीं थी तो तत्कालीन समय में ही एक धार्मिक कटुता के जहर में बुझी अन्य विचारधाराओं को पैर पसारने के लिए धर्म सबसे मुफीद चीज समझ में आती थी , जिसके परिणामस्वरूप पहले हिंदू महासभा और बाद में उसी के समानांतर मुस्लिम लीग अस्तित्व में आकर लोगों के जेहन में धार्मिक विष घोलने का काम शुरू कर चुके थे । इन धर्म आधारित हिंदू और मुस्लिम तंजीमों को आजादी के आंदोलन से भी कोई मतलब नहीं था , उनको अंग्रेजों का अपरोक्ष समर्थन भी प्राप्त था ,क्योंकि अंग्रेज साल दर साल राज करते हुए 2 चीजें अच्छी तरह से समझ चुके थे ,पहला कि हिंदुस्तान की कौमें शिक्षित होने की जगह भेड़ चाल में आसानी से चल जाती हैं ,दूसरा की हिन्दुस्तानियों का सबसे कमजोर और मार्मिक पहलू है धर्म ,जिसके नाम पर हिंदुस्तानी अपने किसी भी उद्देश्य से आसानी से भटकाया जा सकता है । इसीलिए अंग्रेजों ने तत्कालीन कई हिंदू और मुस्लिम नेताओं को आजादी के आंदोलन से भी विरत करके उनके मोटे मोटे वजीफे बांध दिए और उनके ऐशो आराम की जिंदगी देनी शुरू कर दी थी । बदले में उन नेताओं का काम तत्कालीन समाज को मूल आंदोलन से विरत करके हिंदू और मुस्लिम के रूप में उलझाए रखना था ,जिससे की अंग्रेजी हुकूमत का सूरज भारत में कभी अस्त ना हो ।
तत्कालीन दौर में भी शहीद ए आजम भगत सिंह जैसे कट्टर कम्युनिस्ट क्रांतिकारी भी थे जो इन चीजों को समझ कर उनके खिलाफ लिख भी रहे थे मगर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती से ज्यादा कुछ नहीं थी , क्योंकि गांधी वादियों को सशत्र आंदोलन से परहेज था तो हिंदू मुस्लिम वादियों को तो वो बिलकुल ही चुभते थे , तत्कालीन दौर में सिर्फ और सिर्फ नेहरुएक ऐसे नेता थे जो मध्यमार्गी थे ,उनको अंहिसा के बापू के रास्ते के साथ ही सशत्र आंदोलन कर रहे क्रांतिकारियों से भी सहानुभूति थी ,इसीलिए नेहरू और उनका परिवार परदे के पीछे से हमेशा पंडित चंद्रशेखर आजाद के माध्यम से क्रांतिकारी तंजीमो की आर्थिक मदद किया करते थे , अंग्रजों द्वारा मारें जाने के समय आजाद के खींसे में 300 रुपए मिले थे जो कहा जाता है कमला नेहरू ने उनको दिए थे ।
खैर मसला उस समय मजहबी किया अंग्रेजों ने और उसका फायदा धर्म का ठेका लेकर बैठे तत्कालीन हिंदू और मुस्लिम नेताओं ने उठाया । जिस आधार पर देश का विभाजन तक हुआ और वो हर धर्म के अंदर एक गहरे जख्म पैदा करके कहीं न कहीं धार्मिक कटुता की एक गहरी लकीर भी खींच गया । जिस लकीर को शनैः शनैः हवा यहां मौजूद धर्म के अलंबरदारों के भेष में येन केन प्रकारेण सत्ता पे काबिज होने का सपना पाले ताकतें बड़ा करती रहीं , क्योंकि मजहबी लकीर का बड़ा होना ही एक ऐसा हथियार था जो हर विकास हर दुख दरिद्रता से दूर इंसान की बुद्धि को बंद करने का माद्दा रखता है ।
आजादी के बाद भी जब देश को सिर्फ और सिर्फ 400 करोड़ की पूंजी के साथ देश का निर्माण ,शिक्षा ,उच्च शिक्षा चिकित्सा बिजली पानी हथियार फौज हर चीज खड़ी करने की चुनौती थी ,तब भी मजहबी ताकतें नेहरू के लिबरल होने का फायदा उठा कर ये खेल खेल रही थीं , हालांकि सरदार पटेल ऐसे मजहबी संगठनों के सख्त खिलाफ थे और उनको प्रतिबंधित भी करना चाहते थे ,किया भी उन्होंने मगर धीरे धीरे सत्ता की लिबरल नीति ने उन ताकतों को आजाद भारत में ना सिर्फ पनपने का मौका दिया ,समय समय पर उनको खाद पानी भी दिया , इन संगठनों को भी शीत युद्ध के समय अमेरिकी सी बी आई और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों से तमाम मदद इमदाद मिलती रही ।
मजहबी खेल को साधने में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भिंडरवालें को आगे कर पंजाब को साधने की कोशिश की ,अंततः वो भस्मासुर बनके पंजाब को निगल गया था ,उसके चंगुल से पंजाब को निकालने के बाद जो धर्म का जहर आया वो इंदिरा गांधी को ही लील गया । शाहबानो प्रकरण से लेकर बाबरी का ताला खुलवाने तक तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी कभी हिंदुवादियों और कभी मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर रहे ।
मगर तत्कालीन दौर में चंद्रशेखर , जार्ज फर्नांडीज ,अटलनबिहारी बाजपेई , जयप्रकाश नारायण लोहिया जैसे नेताओं ने दलगत राजनीति के लिए मजहबी उन्माद कभी खड़ा करने की कोशिश नही की ।
वर्तमान में कुछ सालों से सत्ता साधने के लिए को मजहबी ध्रुवीकरण का दौर वर्तमान भारत देख रहा है वो निःसंदेह ही दुखद है , तरक्की की बातें छोड़ जब बात कपड़ों से पहचानने और अब्रिस्तान शमशान की होने लेंगे तो धार्मिक ध्रुवीकरण तो होना लाजमी है । लेकिन कल जिस तरह दुर्दांत अपराधी अतीक अहमद की मौत के बाद बहुसंख्यक समुदाय में खुशी का इजहार हो रहा और अतीक के बाद मुख्तार जैसे नारे बुलंद हो रहे वो निश्चय ही भयावह है ।
भारत वर्ष एक संविधान से चलता है , जिस संविधान ने अपराधियों को कभी धार्मिक सामाजिक और जातिगत आधार पर सभी के लिए समान कानून बनाए हैं , सभी को न्याय पाने का नैसर्गिक अधिकार दिया गया है , जब ये अधिकार सभी धर्मों और जातियों को है तो निशाने पर सिर्फ एक वर्ग विशेष के अपराधी क्यों ,क्या अपराधियों का भी अब धार्मिक आधार पर मान्यीकरण होगा ? अमुक धर्म का अपराधी पूजा जाएगा और बाहुबल का सिंबल बनेगा और अमुक धर्म का मिटा दिया जाएगा , क्या भारतवर्ष ऐसे चलेगा ?? इन सबसे इतर सवाल ये है कि क्या भीडतंत्र के हवाले न्याय व्यवस्था करने को न्याय बताया जाएगा , अगर भीडतंत्र ही न्याय का पर्याय है तो अदालतों की जरूरत ही नहीं , में फिर कह रहा हूं कि अतीक अहमद हो या कोई अन्य दुर्दांत अपराधी ,चाहे किसी भी धर्म का हो ,उसको कड़ी से कड़ी सजा मिले , आर्थिक दंड ऐसा मिले जैसे पश्चिमी देशों में होता है मगर विकास के पथ पर क्या हम भीडतंत्र के सहारे बढ़ेंगे या न्यायत्तंत्र के ।
इतिहास गवाह है कि जब जब भीडतंत्र को बढ़ावा दिया गया है ,तब एक समय के बाद वो सत्ता को भी नकार का स्वयं की सत्ता खड़ी करके सत्ता को ही चुनौती देते हुए एक युद्ध छेड़ देता है । तो यक्ष प्रश्न ये है की अब भारत संविधान प्रदत्त न्याय के नैसर्गिक अधिकार से चलेगा या भीड़ तंत्र से ? समय है खुद से विमर्श करने का ।

सादर
बसन्त निगम

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