पानी के लिए अब आंदोलन नहीं करेंगे ईडा गांव के लोग
अल्मोड़ा- हम अपने हौंसलों को इस तरह से आजमाते हैं कि पत्थर के शहर में आईनों का घर बनाते हैं । आजर साहब की ये पंक्ति द्वाराहाट विधानसभा क्षेत्र के ईडा गाव के ग्रामीणों पर सटीक बैठती है। ग्रामीणों ने वाकई में पत्थर के शहर में आईनों का घर बनाकर दिखाया है। ईडा गांव को राज्य में कोई पहचानता हो या न हो, जलसंस्थान इस गांव को जरूर पहचानता है और अब जल निगम भी इस गांव को पहचानना शुरू कर देगा।
दरअसल लोककल्याणकारी सरकारों के तमाम दावों के बावजूद ईडा गांव को पानी जैसी बुनियादी सहूलियत मुहैय्या नहीं हो पाई। आंदोलन हुए धरने प्रदर्शन हुए मीडिया ने ईडा गांव की पानी की पीड़ा को शब्द दिए बावजूद इसके सरकारी तंत्र की काहिली ने दम साधे रखा। बड़ी पंचायत के प्रतिनिधि रहे हों या अवाम को पानी देने के लिए जिम्मेदार महकमे सभी ने कानों में तेल डाले रखा और ईडा गांव पानी के लिए तड़फता रहा।
आखिर में गांव के पंचायत प्रतिनिधियों जिनमें जिला पंचायत सदस्य, क्षेत्र पंचायत सदस्य, ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत सदस्य सभी ने नई राह निकाली जिसके तहत सभी ने गांव की मदद से सामूहिक चंदा किया और दो लाख रूपए एकत्रित कर पानी पीने के लिए स्थानीय रालक गधेरे में बोरिंग शुरू कर दी।
बोरिंग के लिए एक निजी कंपनी को ठेका दिया गया और मजदूरी का खर्च बचाने के लिए ग्रामीणों से खुद को कंपनी के आगे रखा। नतीजा ये हुआ कि दस दिनों की कड़ी मशक्कत रंग लाई और 50 फीट की गहराई से पानी की दौलत ग्रामीणों को मिल गई। अब पानी के लिए टैंक बनाया जाएगा जिससे ग्रामीणों को पेय जल की आपूर्ति होगी।
ईडा गांव के ग्रामीणों ने उन सरकारी महकमों के मुंह पर तमाचा जड़ा है जिन्होंने अपनी इमेज बचाने के लिए आश्वासनों के हथियार से हर बार आंदोलन खत्म कर दिया लेकिन प्यासे गांव को पानी नही पिला पाए। ऐसे में कहा जा सकता है कि अगर सब कुछ जनता को खुद ही करना है तो मोटी पगार पर तैनात सरकारी महकमों की जरूरत ही क्या है। साथ ही सवाल ये भी है कि क्या सामूहिक पूंजी और श्रमदान के पसीने से आबाद योजनाओं से सरकार निर्लज्ज होकर राजस्व मांगेगी?