आशीष तिवारी- जी, ये सच है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस समय देश में पांच सौ और एक हजार के नोटों के चलन को बंद करने की घोषणा कर रहे थे साथी बाई शायद उस समय तक केरल के एक सुदूरवर्ती गांव में बने अपने छोटे से घर में सो चुकी थी। 20 सालों से पेंशन ले रहीं साथी बाई ने न प्रधानमंत्री के भाषण का लाइव टेलिकास्ट देखा और न ही रिपीट। साथी बाई तक न कोई व्हाट्सअप संदेश पहुंचा और न ही फेसबुक वॉल पर लिखी कोई इबारत वो पढ़ सकीं। नोटों के बदलने की अंतिम तारीख के बाद भी साथी बाई के पास पांच लाख रुपए के पुराने नोट पड़े हुए हैं। आर्थिक नीतियों को देश में संचालित करने वाली सर्वोच्च संस्था रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी अब साथी बाई का कोई सहयोग करने से मना कर दिया है।
साथी बाई, देश के नए कानूनों के तहत पुराने नोटों को रखने पर जेल जा सकती हैं।
ये देश विडंबनाओं से भरा पड़ा है। हैरानी तब होती है जब देश की सर्वोच्च संस्थाएं इन विडंबनाओं को समझ नहीं पातीं। देश में दूरदर्शन का नेटवर्क बहुत अच्छा होगा लेकिन वो साथी बाई के गांव तक शायद नहीं पहुंचता। दूरदर्शन पहुंच भी जाए तो होगा क्या, क्योंकि साथी बाई के गांव तक अभी बिजली नहीं पहुंची है।
साथी बाई की विडंबनाएं इस देश की बड़ी आबादी की विडंबनाओं का आईना हैं। देश की सर्वोच्च सत्ता और उसकी योजनाएं जिस सीमित दाएरे तक सिमटती जा रही है उससे ये देश हिस्सों में बंटता जाएगा।
इस सबके बीच ये याद रखना जरूरी है कि हम एक लोकतंत्र में रहते हैं और वोट डालते हैं। साथी बाई भी किसी संसदीय क्षेत्र में बसती होगी, कोई विधायक इनकी नुमांइदगी करता होगा। ग्राम प्रधान चुनने में वोट साथी बाई भी डालती होगी। लेकिन इनमें से किसी ने भी साथी बाई को ये नहीं बताया कि देश की सर्वोच्च सत्ता ने क्या फैसला लिया है। इस संवादहीनता के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए।
साथी बाई अपने पति और बेटी की मौत के बाद अपने घर में अकेली रहती हैं। उनके पास पड़े पांच लाख रुपए पिछले बीस सालों से अधिक समय से इकट्ठा की गई उनकी पूंजी का हिस्सा हैं। वो काला धन नहीं हो सकती। फिलहाल साथी बाई के पैसे पुलिस के कब्जे में हैं और साथी बाई पता लगा रहीं हैं कि दिल्ली में बैठी सरकार किसकी है उसने उनके बारे में क्यों नहीं सोचा।
सौजन्य से अग्निवार्ता.कॉम (http://agnivaarta.com/?p=2326)