भगवत गीता में एक श्लोक है
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
म वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:।।
अर्थात संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं।
दरअसल इस श्लोक को उत्तराखंड की राजनीति में फिट होता देखने की अपनी वजह है। राज्य के राजनीतिज्ञ, राज्य के लोगों को या तो मूर्ख समझते हैं या स्वयं को अत्यधिक बुद्धिमान क्योंकि जैसा व्यवहार वो राज्य के राजनीतिक समाज से कर रहें हैं उसी तरह के व्यवहार से स्वयं दो चार नहीं होना चाहते।
उत्तराखंड में 2017 के विधानसभा चुनाव न सिर्फ राजनीतिक सिद्धांतों की अग्नि परीक्षा हैं बल्कि राजनीतिक समाज की विश्वसनीयता और उत्तराखंड के आम जनमानस की राजनीतिक निष्ठा का भी इम्तिहान हैं। राज्य की नई ‘सियासी शिल्पियां’ इस राज्य की अस्मिता को भी अपने राजनीतिक फाएदे और नुकसान के लिए दांव पर लगाने से नहीं चूक रहीं हैं।
हम सभी राजनीतिक समाज का एक हिस्सा हैं और राजनीति हमारी ही है और हमारे लिए है। उत्तराखंड में पिछले कुछ दिनों में बदले राजनीतिक परिवेश ने ये महसूस करा दिया है कि राजनीतिक प्रतिबद्धता और सिद्धांत जैसे शब्द अब इस राज्य की राजनीति से विलुप्त होते जा रहें हैं। राज्य की दोनों बड़ी पार्टियां इस बार राजनीतिक रूप से पतन की पराकाष्ठा को पार करने की होड़ में लगीं हैं। ऐसे में हर पार्टी के पास चुनाव में ऐन केन प्रकारेण सिर्फ जीत का ही एजेंडा रह गया।
इस बार के चुनावों में सियासत ने एक ऐसा ‘शिल्पी चरित्र’ भी देख लिया जिसे देखने के बाद राज्य की आधी आबादी के सियासी चारित्रिक पतन की आशंका भी सामने आने लगी है। यानी उम्मीद की एक और खिड़की बंद होती दिख रही है। फिलहाल उत्तराखंड के राजनीतिक शिल्पी जिस मूरत को बना रहें हैं वो सुंदर होगी ये कहना मुश्किल है।