ईजा का कोई फोटो मेरे पास नहीं था क्योंकि तब गांव में फोटो खींचने की कोई सुविधा ही नहीं थी। ‘मेरी यादों का पहाड़’ में उसका चित्र देने के लिए मैंने अपनी बेटी मानसी को बैठा कर बताया कि मां कैसी थी, वह कैसी दिखती थी। उसके बारे में एक-एक चीज बताई। मैं आज भी अपनी कल्पना में उसे देखता हूं और जैसा देखता हूं वैसा ही मैंने बेटी को समझाया। उसने घर जाकर उन्हीं कल्पनाओं के आधार पर मां का चित्र बनाना शुरू किया और रात दो बजे बाद उसका फोन आया, “मैंने दादी का चित्र पूरा कर लिया है।” मां का यह वही चित्र है।
‘मेरी यादो का पहाड़’ में जब बड़ी शिद्दत से मां के बारे में लिख रहा था तो लगता था वह कहीं आस-पास ही हैं। मातृ दिवस पर आज फिर मां के बारे में लिखे उन शब्दों को पढ़ रहा हूं। लिखा है : ‘ईजा आती। बुरोंज खिलने के मौसम में मेरे लिए घास के गट्ठर के ऊपर रस्सी में खोंस कर बुरोंज के लाल-लाल फूल लाती। पहले उनसे खेलता, बाद में उनका शहद चूस लेता।…हम बच्चे सोचते रहते, ये ईजाएं इतनी देर में क्यों आती होंगी? इनकी कभी छुट्टी क्यों नहीं होती होगी? घर पर वे तभी होती थीं जब या तो खाना पकाना हो या तबियत खराब हो।
ईजा और भौजी सुबह-सुबह घास, लकड़ियां या पात-पतेल लेने के लिए निकल जातीं। खाने के लिए या तो देर रात दो रोटी बचा लेतीं या सुबह मुंह अंधेरे बना लेतीं। गुड़ हुआ तो गुड़, नहीं तो सिल पर नमक, मिर्च, लहसुन घिस कर रोटी में लपेटतीं और दराती, रस्सी लेकर ये जा, वो जा। घासपात या लकड़ियां लेकर दिन-दोपहर में आतीं। ईजा या भौजी हम सबके लिए खाना बनाती। सबको खिला कर, पन्यानि में बर्तन घिस-घिसा कर खेतों में काम करने के लिए निकल जातीं। फसल की गोड़ाई करके, बोरी में घोड़े के लिए दूब और कुर-घा बटोर कर देर शाम घर आतीं। घोड़ा गोरु-बाछों की तरह दूसरी घासें नहीं खाता था। दूब और कुर-घा के अलावा ढेकी में मूसल से कूटे धान को सूप में फटका कर निकाला हुआ ‘कौन’ या भिगाया हुआ ‘दाना’ खाता था। जौ, गेहूं या चने का ‘दाना’।
घर लौट कर ईजा चूल्हे में आग जलाती। दूर रखे चीड़ के छिलके के उजाले में साग काट कर चढ़ाती। भौजी आटा गूंधती। ददा, बाज्यू खाने को बैठते। मुझसे कहते, “देबी, जरा लोटे में पानी दे,…थाली लाना तो जरा,….बैठने को चौका देना जरा… ” । तब ईजा कहती, “य ला, वू ला। उसको बैठ कर खाने तो दो। खा बेटा, खा तू।”
हम खा लेते तो छिलके के धुंधले, पीले उजाले में ईजा और भौजी बैठ कर, पैर लंबे करके खुद खाना खातीं। अक्सर जब वे खाना खातीं तो बाकी लोग सो चुके होते। लेकिन, कई बार “क्यों, नींद आ गई भलै?” पूछने पर वे “होई” कहते थे!
सुबह अंधेरे में उठने पर फिर वही रस्सी-दराती लेकर दिन की दौड़ शुरू हो जाती थी…।
नोट : प्रसिद्ध विज्ञान कहानी लेखक देवेन मेवाड़ी की फेसबुक वाल से साभार।