आशीष तिवारी। हैरानी, विस्मय, आश्चर्य सब को मिला कर कोई नया शब्द मिले तो वही समझ लीजिए लेकिन सवाल जाएज है। देश के साथ साथ उत्तराखंड में भी लोकसभा के चुनाव हो रहें हैं। चुनाव हैं तो मुद्दे भी हैं, या यूं कहिए कि मुद्दों से अधिक मुद्दों के नाम की बाजीगरी है। फर्ज कीजिए कि किसी हकीम के ठौर पर पहुंचे और अपने पेट दर्द की परेशानी बताइ। अब हकीम पेट दर्द की परेशानी का इलाज न कर खून साफ करने की दवा देने लगे तो समझिए कि वो चुनाव लड़ चुका है या लड़ने की तैयारी में है।
समूचे उत्तराखंड में लोग पेट दर्द की समस्या से परेशान हैं लेकिन हाकिम हैं कि खून साफ करने की दवा देने का वादा किए जा रहें हैं।
बुधवार के टाइम्स ऑफ इंडिया के देहरादून एडिशन में एक खबर फ्रंट पेज पर छपी। नामिक गांव से जुड़ी खबर थी। दरअसल पिथौरागढ़ के मुनस्यारी तहसील के इस गांव ने आजतक किसी नेता को अपने दरवाजे वोट मांगते हुए नहीं पाया। हालांकि ये भी एक तरह का सुख है कि आप न तो नेता के वादे सुने, न उसे वोट दें और न ही चुनाव बाद वादा पूरा न होने की दशा में न तो मन ही मन परेशान हों। पर मसला ये नहीं है। नामिक गांव में जाने को कोई सड़क नहीं है। 27 किलोमीटर का पैदल ट्रैक करना पड़ता है। अखबार की खबर बताती है कि चुनावों में यहां पोलिंग बूथ बनाया जाता है। इस बार 407 वोटर वोट डालेंगे।
अब सोचिए कि जिस गांव में लोगों को सड़क नसीब नहीं है उन्हें अंतरिक्ष में एंटी सेटलाइट मिसाइल वाला विकास कितना सुखद लगेगा? फिर सवाल इतना भर क्यों पूछें? सड़क छोड़िए, पहाड़ में पीने के पानी का घोर संकट है, रोजगार, पलायन, खत्म होती खेती, बढ़ता प्रदूषण से लेकर बंदर सूअर के किस्से भी चुनावों के दौरान कहे सुने जाने चाहिए थे लेकिन ‘मुद्दों की स्ट्राइक’ ऐसी हुई है कि अब कुछ ‘स्ट्राइक’ ही नहीं कर रहा है। पूरे उत्तराखंड को उस देशभक्ति का पानी पिलाया जा रहा है जो देशभक्ति यहीं की जलधाराओं और विराट शिलाओं से निकलकर पूरे देश को मिलती है।
फिर इतने सवाल पूछे जाएं तो जवाब भी कौन देगा, ये भी एक सवाल है। बारी बारी से सबने अपनी योग्यता दिखा दी है। कोई राम नाम तो कोई नाम नाम। तो फिर एक सवाल पैदा होता है कि क्या फिर सवाल ही नहीं पूछा जाए। ऐसा करना अपने अंतस में बसते स्वाभाविक लोकतांत्रिक व्यवहार से धोखा जैसा होगा। लिहाजा सवाल पूछिए, सामने वाले से नहीं पूछ सकते तो खुद ही सामना करिए अपने सवालों का। पर पूछिए जरूर। सोचिए कि उत्तराखंड की आने वाली पीढ़ियों को हम क्या देकर जाएंगे। सूखे खेत, सिमटती स्नो लाइन, उजड़े गांव, पगडंडियां, बेरोजगारी, पलायन कर जाने की मजबूरी, सड़क पर प्रसव की पीड़ा या फिर सवाल पूछ पाने का साहस। तय आपको ही करना होगा।