सावन का पवित्र महीना भगवान शिव का महीना कहा जाता है क्योंकि सावन में शिव अराधना का बड़ा महत्तव होता है। इस दौरान जगह-जगह कांवड़ियों की लम्बी कतारें बम बम भोले के जयकारे लगाते हुए दिखतीं है। हर साल श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवड़िये दूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पद यात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं और इस यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है। श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड़ के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ऐसे हुई थी श्रद्धा से जुड़ी इस परंपरा की शुरुआत।
इस यात्रा को श्री राम ने शुरू किया था- ऐसा माना जाता है कि भगवान राम पहले कांवड़िया थे। उन्होंने सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल लाकर बाबाधाम के शिवलिंग का जलाभिषेक किया था।
श्रवण कुमार ने की थी कांवड़ की शुरुआत- वहीं कुछ लोगों का मानना है कि पहली बार श्रवण कुमार ने अपने दृष्टिहीन माता पिता कि इच्छा पूरी करने के लिए त्रेता युग में तीर्थ यात्रा कराई थी। उनकी इस इच्छा पूरी करने के लिए श्रवण कुमार ने उन्हें कांवड़ में बैठाया और हरिद्वार लाकर गंगा स्नान कराए। वहां से वह अपने साथ गंगाजल भी लाए। माना जाता है तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई थी।
परशुराम थे पहले कांवड़िया: कुछ विद्वानों का मानना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ से गंगाजल लाकर उत्तर प्रदेश के बागपत के पास स्थित ‘पुरा महादेव’ का जलाभिषेक किया था। वह शिवलिंग का अभिषेक करने के लिए गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाए थे। इस कथा के अनुसार आज भी लोग गढ़मुक्तेश्वर से गंगाजल लाकर पुरा महादेव का अभिषेक करते हैं। जो अब ब्रजघाट के नाम से जाना जाता है।
वहीं ये भी मान्यता है कि समुद्र मंथन में विष के असर को कम करने के लिए शिवजी ठंडे चंद्रमा को अपने मस्तक पर सुशोभित किया था। फिर सभी देवताओं ने भोलेनाथ को गंगाजल चढ़ाया और तब से सावन में कांवड़ यात्रा शुरू हुई थी।