आशीष तिवारी- हिमालय दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। पता नहीं आपको कब तक हिमालय दिवस की शुभकामनाएं दी जा पाएंगी। आपकी अगली पीढ़ियों के लिए हिमालय की चर्चा से जुड़ने पर कोई शुभकामना या फिर सकारात्मक सोच निकल भी पाएगी इसमें शक है। दरअसल हिमालय इतनी तेजी से बदल रहा है जितनी तेजी से हम उम्मीद भी नहीं कर सकते। हिमालय दिवस के मौके पर ये समझना जरूरी है कि एक जिंदा पहाड़ हमारी हरकतों से कैसे तिल तिल कर मर रहा है।
वैज्ञानिकों की माने तो हिमालय, विश्व की नवीनतम पर्वत श्रृंखला है। विराट, विशाल हिमालय को देख भर लेने से ही मन रोमांच से भर उठता है। दुनिया के करोड़ों मनुष्यों को आश्रय देने वाला हिमालय अब धीरे धीरे अपनी प्राकृतिक संपदा को खोने लगा है। चूंकि हिमालय बेहद विशाल है इसीलिए अभी ये बदलाव बहुत हद तक महसूस नहीं हो रहा है लेकिन बदलाव की आहट मिलने लगी है। आवश्यकता से अधिक मानवीय हलचल से हिमालय स्वयं को असहज महसूस कर रहा है। मानव के विकास के मॉ़डल में और वो भी विशेष तौर पर भारत में विकास के मॉडल में प्रकृति के संरक्षण का पहलू ना के बराबर होता है। अभी हाल में वर्तमान केंद्र सरकार ने उत्तराखंड में स्थित चार धामों को जोड़ने के लिए ऑल वेदर रोड योजना शुरु की है। इस योजना के तहत पूरे उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर सड़कों का चौड़ीकरण किया जा रहा है। इस दौरान ऐसी सड़कों का निर्माण करने का दावा किया जा रहा है जो हर मौसम में खुली रहेंगी। हालांकि इस योजना की कीमत पर्यावरणीय लिहाज से बेहद अधिक है। आधिकारिक रूप से इस योजना के लिए तीस हजार पेड़ों के काटने की तैयारी है। इनमें से अधिकतर पेड़ सड़कों के किनारे लगें हैं जिनको काटा जाना है। हालांकि स्थानीय सूत्रों की माने तो काटे जाने वाले पेड़ों की संख्या इसकी दुगुनी होगी। या उससे भी अधिक हो सकती है। इसके साथ ही पहाड़ों को मशीनों से ड्रिल किया जा रहा है। वैज्ञानिकों ने अब ये सार्वजनिक रूप से मान लिया है कि ऑल वेदर रोड के निर्माण से जितना फाएदा नहीं होगा उससे कहीं अधिक पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा। पहाड़ कमजोर होते चले जाएंगे और निरंतर टूटते रहेंगे।
हिमालय दिवस को मनाने के पीछे भले ही हिमालयी क्षेत्रों में हो रहे बदलावों और उसके पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करना हो लेकिन सच यही है हम दुष्प्रभावों को देखने लगे हैं फिर भी संभलने का नाम नहीं ले रहें हैं। उत्तराखंड के केदारनाथ में आई आपदा में बड़े पैमाने पर हुई इंसानी मौतों की वजह भी हमारी पहाड़ में रहने, चलने, बोलने, खाने के संबंध में अनुशासनहीनता ही रही। केदारनाथ जैसे उच्च हिमालयी स्थल पर आवश्यकता से अधिक मानवीय गतिविधियों ने आपदा में मरने वालों का आंकड़ा बढ़ा दिया। आपदा में मंदाकिनी नदी ने भयावह रूप धारण किया था। बाद में सहयोगी नदियों ने भी विकराल रूप धारण करते हुए बड़े पैमाने पर तबाही मचाई। इस आपदा में नुकसान की एक वजह नदियों के किनारों पर बन मकानों का धारा के आगोश में रहा। हमने अपने घर बनाने के लिए नदियों को नाला बनाने की कोशिश की और परिणाम सबके सामने है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने पता किया है कि गंगोत्री का ग्लेशियर लगातार अपना आकार कम कर रहा है। गंगोत्री से ही गंगा का उद्मम माना जाता है। गंगोत्री ग्लेशियर का कम होना एक संकेत है हिमालय में हो रहे बदलाव के बारे में।
हिमालय बेहद संवेदनशील पर्वत श्रृंखला है। वैज्ञानिक दृष्टि से हिमालय प्रति वर्ष यूरेशियन प्लेट्स की ओर खिसक रहा है। इसे रोका नहीं जा सकता है। हिमालय का निर्माण भी ऐसी ही भूगर्भीय हलचल से हुआ है। ऐसे में हमारे पास जो हिमालय है हमें उसे ही सहेजना और संवारना होगा। कई पर्यावरणविद मानते हैं कि हिमालय को हिमालय के सहारे छोड़ा जाए तो बेहतर होगा। (साभार, http://agnivaarta.com)