देहरादून- मौजूदा वक्त में देश की सियासी तस्वीर पर नजर डाली जाए तो इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़कर ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय दलों की अपने राज्य की राजनीति में बड़ी पकड़ है। लेकिन उत्तराखंड में उत्तराखंड क्रांति दल की स्थिति का ग्राफ लगातार गिर रहा है। आज आलम ये है कि यूकेडी का बतौर पार्टी कोई वजूद ही नहीं है। हालांकि अलग राज्य निर्माण आंदोलन में सबसे ज्यादा भागीदारी के बावजूद यूकेडी राज्य की सियासत के हासिए से भी कंही दूर छिटक गई है। ऐसा नहीं है कि राज्य में क्षेत्रीय विचारधारा का मतदाता न रहा हो लेकिन यूकेडी के नेताओं का अहम न केवल यूकेडी को खा गया बल्कि उन हजारों मतदाताओं को राष्ट्रीय दलों के दरबार के भीतर भी धकेल चुका है जहां से अब वे मतदाता बाहर आने की जहमत नहीं उठाते। यूकेडी के नेताओं ने पिछले सोलह सालों में न केवल जनता का विश्वास ही नही खोया बल्कि अपनी उर्वरक जमीन भी खो दी है। पिछले सोलह सालों में तीन बार के चुनावी आंकड़े इस बात की गवाही देते हैं कि जिस यूकेडी से राष्ट्रीय दलों को मुकाबला करना था वो यूकेडी अपने वजूद के लिए गिड़गिड़ा रही है। हाल ये हैं कि 2002 के पहले आम चुनाव में जो यूकेडी 62 सीटों पर चुनाव लड़कर 4 सीटें जीती थी वो 2012 के चुनाव में सिर्फ 44 सीटों पर ही उम्मीदवार उतार पाई और महज एक सीट पर जीत नसीब कर पाई। यूकेडी के नेताओं की माने तो जीतने वाले उम्मीदवार राष्ट्रीय दलों के पिछलग्गू बन गए और क्षेत्रीय सरोकारों का पैरवी करने वाले अपने दल की मजबूती को भूल गए। आरोप सही भी हो सकते हैं बहरहाल बड़ा सवाल ये है कि जिस राज्य् का निर्माण आंदोलन में क्षेत्रीय हितों की खुशबु थी उन सवालों की सुगंध चुनावी मौसम में राष्ट्रीय दलों के साए में लिपट कर कहां गायब हो जाती है।
चुनावी साल | चुनाव लड़ा | जीत हासिल | वोट प्रतिशत |
2002 | 62 सीटों पर | 4 | 5.49 % |
2007 | 61 सीटों पर | 3 | 5.49 % |
2012 | 44 सीटों पर | 1 | 1.93 % |