देहरादून : उत्तराखंड में आज इगास की धूम है। बता दें कि दीपावली के 11वें दिन इगास मनाई जाती है। इगास के दिन उत्तराखंड के लोग पर्व पर घर में पूरी पकौड़े बनातें हैं और घर को दिये जलाकर जगमग करते हैं। अपने सांस्कृतिक पर्व को लोकप्रिय करने औऱ पलायन कर चुके लोगों को वापस गांव बुलाने के लिए अनिल बलूनी ने मुहिम छेड़ी और लोगों को गांव घर आकर इगास बग्वाल मनाने की अपील की। इसका असर दिखा।
दिपावली के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा
बता दें कि पहाड़ में इस दिन लक्ष्मी पूजन के साथ ही गायों की पूजा जाती है। इस पर्व की खास बात यह है कि आतिशबाजी करने के बजाय लोग रात के समय पारंपरिक भैलो खेलते हैं। पहाड़ में बग्वाल यानी की दिपावली के ठीक 11 दिन बाद इगास मनाने की परंपरा है। इस दिन मवेशियों के लिए भात, झंगोरा का पींडू तैयार किया जाता है। उनका तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है। इसके बाद उन्हें ये आहार खिलाया जाता है। लोग घरों में पूरी पकौड़ी और कई व्यंजन बनाते हैं।
कई मंत्री इगास मनाने पहुंचे पैतृक गांव
आपको बता दें कि इस इगास कई मंत्री इस बार की इगास मनाने पहुंचे हैं अपने पैतृक गांव, राज्यमंत्री रेखा आर्य, शिक्षा मंत्री अरविंद पांडेय अपने पैतृक गांव में इगास मनाएंगे।इगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है। इसे ग्यारस का त्योहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं।
इस दिन से सभी मांगलिक कार्य शुरू होते हैं
मान्यता के अनुसार क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे। इस दिन से सभी मांगलिक कार्य शुरू होते हैं।इसके बाद उड़द की पकोड़ी, दाल के भरे स्वाले और गुलगुले बनाए जाते हैं औऱ खाए जाते हैं। इस दिन भैलो खेलने का विशेष रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है।
ये है मान्यता