देहरादून- कहा जाता है है कोदा यानि मंडुआ का मूल निवास अफ्रीका महाद्वीप है। मतलब सबसे पहले इसकी खेती अफ्रीका में की गयी और लगभग 3000 से 4000 वर्ष पहले यह भारत आया था। हड़प्पा की खुदाई में भी पता चला कि उस समय के निवासी भी कोदा की खेती करते थे। बाद में पहाड़ और पहाड़ी जीवन का अहम हिस्सा बन गया। इसे 2000 से 3000 मीटर की ऊंचाई पर उगाया जा सकता है।
कोदा उत्तराखंड संस्कृति, खानपान का अहम हिस्सा
कोदा उत्तराखंड संस्कृति, खानपान का अहम हिस्सा रहा है। यदि पहाड़ी हट्टे-कट्ठे मजबूत होते हैं तो उसका काफी श्रेय कोदा को जाता है। गुणों की खान है कोदा। इसलिए इसे अनाजों का राजा भी कहते हैं। इसके दाने काले या राई के रंग के होते हैं और इसलिए इसकी रोटियां भी काली, भूरे रंग की होती हैं। यह ऐसा अनाज है जिस पर कीड़ा नहीं लगता और इसे लंबे समय तक रखा जा सकता है।
कोदा की बुवाई में ‘डामर‘ भी पड़ जाए तो चिंता नहीं
कोदा की बुवाई मई जून में की जाती है। इसकी खेती के लिये बहुत उपजाऊ जमीन और बहुत अधिक पानी की जरूरत नहीं होती है। जब सीढ़ीनुमा खेतों में कोदा की बुवाई होती है तो मस्त धूल उड़ती रहती है। गेंहूं की बुवाई के लिये जहां हल बहुत ध्यान रखकर चलाना पड़ता है वहीं कोदा की बुवाई में ‘डामर’ भी पड़ जाए तो चिंता नहीं।
बरसात आने पर कोदा की निराई गुड़ाई का काम शुरू हो जाता है। कोदा को छांट-छांटकर खेत की मेढ़ पर लगाने में सुख की अनुभूति होती थी क्योंकि इसका पौधा कहीं पर कैसे भी रोप दिया जाए वह जिंदगी से हार नहीं मानता है।
अक्तूबर. नवंबर में तैयार होती है इसकी फसल
अक्तूबर. नवंबर में इसकी फसल तैयार हो जाती है। पौधे के ऊपर का अनाज निकालकर इकट्ठा करके घर के एक कोने पर रख देते हैं और निचला वाला हिस्सा पशुओं के खाने के लिये एकत्रित कर देते हैं। बाद में खलिहान में ले जाकर इसके छोटे-छोटे दाने अलग कर दिये जाते हैं। बस फिर आटा तैयार कीजिए और फिर रोटी बनाईये, बाड़ी या फिर पल्यो।
गुणों की खान है कोदा
बचपन में नानी-दादी से सुना था कि अगर हम लोग पहाड़ी चढ़ लेते हैं तो इसका श्रेय कोदा को जाता है। कोदा खाने से हड्डी मजबूत बनती हैं और इसका सेवन करने वाला ताकतवर बनता है। कोदा बच्चों से लेकर वृद्धजनों तक सभी के लिये समान रूप से उपयोगी है।
जापान में किया जाता है शिशुओं के लिये खास पौष्टिक आहार तैयार
जापान में तो इससे शिशुओं के लिये खास तौर पर पौष्टिक आहार तैयार किया जाता है। उत्तराखंड सरकार ने भी सरकारी अस्पतालों में मरीजों को कोदा के बने व्यंजन देने की व्यवस्था की थी। कहने का मतलब यह है कि कोदा को छह माह के बच्चे से लेकर गर्भवती महिलाओं, बीमार व्यक्तियों और वृद्धजनों तक सभी को दिया जा सकता है। इससे उन्हें फायदा ही होगा।
कोदा में होते हैं ये पोषक तत्व
कोदा कैल्सियम, फासफोरस, आयोडीन, विटामिन बी, लौह तत्वों से भरपूर होता है। इसमें चावल की तुलना में 34 गुना और गेंहू की तुलना में नौ गुना अधिक कैल्सियम पाया जाता है। प्रति 100 ग्राम कोदा में प्रोटीन 7.6 ग्राम, वसा 1.6 ग्राम, कार्बोहाइड्रेट 76.3 ग्राम, कैल्सियम 370 मिग्रा, खनिज पदार्थ 2.2 ग्राम, लौह अयस्क 5.4 ग्राम पाया जाता है। इसके अलावा इसमें फास्फोरस, विटामिन ए, विटामिन बी.1 यानि थियामाइन, विटामिन बी.2 यानि रिबोफ्लेविन, विटामिन बी.3 यानि नियासिन, फाइबर, गंधक और जिंक आदि भी पाया जाता है।
कोदा के फायदे
1.कैल्सियम और फास्फोरस हड्डियों और दांतों को मजबूत करते हैं। इसमें कैल्सियम और फास्फोरस उचित अनुपात में होने के कारण यह बढ़ते बच्चों के लिये बेहद लाभकारी होता है।
2.मधुमेह के रोगियों के लिये तो कोदा वरदान साबित हो सकता है। इसमें पाये जाने वाले काबोहाइड्रेट जटिल किस्म के होते हैं जिनका पाचन धीरे धीरे होता है और ऐसे में ये रक्त में शर्करा की मात्रा को संतुलित बनाये रखते हैं।
3.हृदय रोगियों के लिये भी यह बहुत अच्छा भोजन है। कोदा से ब्लड प्रेशर को संतुलित करने में भी मदद मिलती है।
4.इसके सेवन से खून में हानिकारक चर्बी घट जाती है और लाभकारी चर्बी बढ़ जाती है। फाइबर अधिक होने के कारण भी इसका खाने से कोलस्ट्राल कम करने में मदद मिलती है।
5.इससे बवासीर के रोगियों को भी फायदा होता है। क्षारीय अनाज होने के कारण कोदा का नियमित सेवन करने वाले व्यक्ति को अल्सर नहीं होता है।
6.अल्सर के रोगियों को कोदा के बने भोजन का नियमित सेवन कराने से लाभ मिलता है। लौह अयस्क होने के कारण कोदा खून की कमी भी दूर करता है।
आपने चिकित्सकों के मुंह से अक्सर सुना होगा कि पहाड़ी लोगों का हीमोग्लोबिन काफी अधिक होता है। उसका कारण कोदा ही है। इसके सेवन करने वाले को कभी एनीमिया नहीं हो सकता। यहां तक कि यह कैंसर जैसे रोग की रोकथाम में लाभकारी है। यहीं नहीं इससे जल्दी बुढ़ापा नहीं आता। चेहरे पर झुरियां देर से पड़ती हैं।कोदा सभी के लिये अमृत है