देहरादून। उत्तराखंड में सब भोले हैं। बस बाबा नहीं हैं। चलिए बेहतर है कि सरकार को पता चल गया कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों ने फीस बढ़ा दी है। पूरे तीन दिनों के बाद जब अचानक शाम तीन बजे के करीब ये खबर सरकार तक पहुंची तो उन्होंने तत्काल फीस वृद्धि वापस लेने के आदेश दिए। सरकार ने भोलेपन से ही सही लेकिन अच्छा कदम उठाया लिहाजा इस कदम की सराहना होनी चाहिए लेकिन…
लेकिन फीस वृद्धि की के तीन दिनों के दौरान जिस तरह के बयान सरकार ने दिए वो निवेशकों और सरकारी तंत्र के खतरनाक सौहार्द की गवाही हैं। इस बात की आशंका प्रबल है कि सरकार निवेशकों के प्रति अत्यंत सौहार्दपूर्ण माहौल तैयार कर रही है। ये इस राज्य के लिए बेहतर नहीं हो सकता। सरकार को अपने इस रवैए पर सोच समझ कर और राज्य के आम जनमानस को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा। वेलफेयर स्टेट की अवधारणा के साथ ही शिक्षा क्षेत्र में सिर्फ निवेशकों के हित ध्यान में रखकर सरकार आगे नहीं बढ़ सकती। ये निवेशकों के लिहाज से बेहतर हो सकता है लेकिन आम लोगों के लिए ये सरकारी तौर पर आर्थिक गुलामी की ओर धकेलने जैसा होगा। खास तौर पर वो मिडिल क्लास जो अपनी चादर से अधिक सोचता है और करता है। उत्तराखंड में प्रारंभिक शिक्षा पिछले कुछ सालों में बेहद महंगी होती गई है। बच्चों की फीस मिडिल क्लास के अभिभावकों के लिए हर महीने की फांसी सी है। अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाना एक ऐसी सजा है जिसे हर अभिभावक जानते हुए भी भुगतता है। हालांकि सरकार ने NCERT की किताबों का मरहम लगाने की कोशिश की है लेकिन शिक्षा विभाग का ये फार्मूला फिलहाल स्कूल प्रबंधकों को मंजूर नहीं होता दिख रहा है।
उच्च शिक्षा में अपने बच्चों की डाक्टरी की पढ़ाई के लिए सालाना 6-7 लाख रुपए का प्रबंध करना किसी ईमानदार मिडिल क्लास अभिभावक के लिए पहाड़ सा काम है। ऐसे में सरकार अगर मेडिकल कॉलेजों को फीस निर्धारण की खुली छूट दे देती तो कई सपनों की मौत निश्चित थी। अच्छा होगा कि ये छूट उन्हें कभी न मिले।