केंद्र सरकार के नोट बंदी के फैसले के बाद कतिपय मीडिया के साथ साथ सरकारी अमलों और सत्ताधारी पार्टी की तरफ से ये दिखाने की होड़ सी लगी है की सब कुछ बहुत ही अच्छा हुआ और जनता मोदी जी के इस फैसले से बहुत खुश है,मगर इस बात में इतना दम ख़म माना जाये तो इस फैसले के महज १५ दिन के अंदर खुद मोदी का जनता से रायशुमारी करना ही फैसले के क्रियान्वयन पैर प्रश्नचिन्ह लगता नजर आता है की जब सब ठीक है तब रायशुमारी क्यों।
वहीँ इस रायशुमारी की बात मानी जाये तो देश की 87 फ़ीसदी जनता इस फैसले से खुश ही नहीं है बल्कि झूम गा रही है, बैंको की लंबी कतार का दुःख भूल कर लोग चैतन्यमयी होकर मस्त हो गए हैं और कतार एक अजीब सी ख़ुशी महसूस कर रहे हैं जो शायद उनको बार बार कतिपय राष्ट्रभक्तों की तरफ से सेना का उदाहरण दे देकर ये बताई जा रही है की सीमा पर सेना का जवान भी दिन रात खड़ा होकर पहरा दे रहा है, अपना पैसा बैंक से न निकल पाने पर दवाई के अभाव में जिसका बच्चा मर गया है, वो और उसके 90 प्रतिशत रिश्तेदार भी खुश होकर चैतन्य मुद्रा में नाचते हुए बताये जा रहे हैं क्योंकि राष्ट्रभक्ति ने उनको भी बता दिया है कि बीमार बच्चे का इलाज करा पाने सैनिक भी कभी कभी घर नहीं आ पता है, इस देशभक्ति की सबल धारा में बैंक की कतार मे अपने परिवार का इकलौता कमाऊ इंसान खोने वाले 90 फ़ीसदी परिवार और उनकी तमाम रिश्तेदार भी नाच रहे हैं और खुश हैं कि रोजगार और रोटी तो ईश्वर के हाथ है मगर हमने अपना कमाऊ परिवार का सहारा देश पर कुर्बान कर दिया है, वो नाच रहे हैं -खुश हैं और राष्ट्रभक्ति का एक पर्व चल रहा है, भला एक राष्ट्र के आगे भूख, क़ुछ बच्चों की मौत और कुछ इंसानो के मर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि राष्ट्र अब इंसान से बड़ा हो चला हो चला है, इंसान से राष्ट्र की अवधारणा से इतर अब राष्ट्र इंसान और उसकी मूलभूत जरूरत जैसे प्रश्नों से ऊपर उठकर एक समग्र राष्ट्र निर्माण की ओर बढ़ चुका है जहाँ राष्ट्र के निवासियों को तमाम तकलीफ़े सह कर भी तकलीफ के खिलाफ बोलना राष्ट्रविरोधी साबित करने के लिए पर्याप्त वजह बन चुका है।
जिनके घरों में शादी नहीं हो पायी वो भी खुश हैं, चैतन्य अवस्था में नृत्य करते हुए वो सामाजिक कुरीतियां जो शादी ब्याह में दिखावे और दहेज़ प्रथा को बढ़ावा देती थीं, जो समाज के रिश्तेदारों के साथ इकठ्ठा होकर मस्ती करके एक भोज के रूप में राष्ट्रीय खाद्यान को बर्बाद करने का सूचक थीं, वो इस राष्ट्र पर्व की वजह से दफ़न तो हुई, इसलिए न सिर्फ तमाम नवयुवक एवं नवयुतियाँ जिनकी शादी तय होकर भी नहीं हुई वो खुश हैं वरन उनके परिवार जन जिनका कुछ एडवांस डूब चूका है वो भी खुश हैं और उनमे से 90 प्रतिशत राष्ट्रवाद के इस उत्सव में चैतन्य नृत्य कर रहे हैं।
कुछ कायर बाप भी थे जिन्होंने में शादी बेटी की शादी न हो पाने की वजह से फांसी लगा ली, उनके भी परिवार के सदस्य तमाम रिश्तेदार नातेदार और मोहल्लेवालों के साथ इस राष्ट्रीयपर्व में चैतन्य हो गए हैं और नृत्य मुद्रा में वो अपने मृतक पिता से यही कह रहे हैं कि कोई बात नहीं, आप इस राष्ट्रीय पर्व की आहुति हैं और हमे आप पर गर्व है, बॉर्डर पर शहीद होने वाले सिपाही की बेटी की तरह मैं अनाथ ही अपना बियाह कर लुंगी ऐसा कह कर वो लड़कियां अपनी सखियों के साथ चैतन्य नृत्य में डूब चुकी हैं।
दिहाड़ी मजदूर जो विभिन्न बाजारों में काम न होने से बेरोजगारी सी हालत में हैं भूखे पेट ही चैतन्य होकर महाप्रभु का जयघोष कर रहे हैं, शाम को अलाव जलाकर आल्हा गाने वाले मजदूरों की टोली अब नाच नाच कर किसी ऍप पर बटन ये सोंच कर दबा रही है जैसे उसके बच्चे का खाली पेट हो जिसको दबाने भर से राष्ट्रवाद का ये बटन उसके परिवार को तमाम जिंदगी भूखा नहीं रहने देगा।
बैंक में 2000 रुपये पाने के लिए खड़ी भीड़ अपनी लाइन में खडे मंत्रियों अम्बानियों अडानियों को देख कर चैतन्य हो गए हैं, राष्ट्रवाद के जयकारे के साथ उनको समाजवाद नजर आने लगा है, मार्क्सवाद की नयी उद्घोषणाओं के साथ जब वो लोग अपनी शहर या गांव के सबसे रईस आदमी को भी 2000 रुपए की लाइन में पा रहे हैं तो अचानक ही मन का चैतन्य जाग्रत होकर बटन ढूंढ रहा है जो बता रहा है की सब खुश हैं।
मगर इन सबकी ख़ुशी के बीच जब प्रधान सेवक रुदाली बनकर करुण क्रंदन करते नज़र आते हैं तो ये शंका गहराने लगती है कि राष्ट्रवाद के पर्व की परिभाषा में तो कहीं कमी नहीं रह गयी या फिर ये 90 फ़ीसदी चैतन्यमयी झूमती गाती जनता का अति स्नेह है जो इस करुण क्रंदन के लिए राष्ट्रवाद के नए पहरुवा को मजबूर कर रहा है।
फिर भी तमाम चीज यही बता रहीं हैं कि 90 प्रतिशत जनता मगन है और देश की सड़कों पर राष्ट्रवाद का जश्न शुरू हो गया है, इसी खबर के साथ ही भारत राष्ट्र के अधिनायक प्रधान सेवक का और भावुक होकर रुदाली की तरह करुण क्रंदन भी बढ़ता जा रहा है, ख़ुशी के आंसू हैं -तो हम भी आपकी ख़ुशी में शामिल होकर राष्ट्रवाद के नाम पर चैतन्यमयी हो जाते हैं।