मेरे राजनैतिक जीवन में ज्यों-ज्यों निर्णायक समय आ रहा है, मेरे अन्दर बहुत कुछ खोल रहा है। कलम बहुत कुछ उगलने को बेचैन है। मैं लगातार लिख रहा हॅू। अन्तरमन की प्रेरणा से लिख रहा हॅू। गरीबी, विपन्नता व असमानता को मिटाने के लिये कल्याण पेंशनें, बोनस योजनायें व सरकारी रोजगारों का सृजन ही पर्याप्त नहीं है। राज्य को अवसर सृजक राज्य के साथ-2, एक समन्वित सन्तुलित नीति नियामक राज्य भी होना आवश्यक है। राज्य में इस दिशा में आवश्यक वातावरण व सोच होनी चाहिये। उत्तराखण्ड, हिमाचल व पूर्वोत्तर के राज्यों की सोच के तर्ज पर आगे नहीं बढ़ पाया। हिमाचल व पूर्वोत्तर के राज्यों ने विकास के अपने माॅडल गढ़े। हमने औद्योगिक विकास सहित कुछ क्षेत्रों में बहुत अच्छा कार्य किया है, परन्तु हम अपने विकास के माॅडल का, स्थानीय परिस्थितियों व मानव मनोविज्ञान के साथ समन्वय स्थापित नहीं कर पाये। हमारे अलावा अन्य हिमालयी राज्यों में विकास का आन्तरिक असन्तुलन नहीं है। हमारे राज्य में प्रति व्यक्ति आय तेजी से बढ़ी है। मगर न्यूनतम व अधिकत्तम आय में अन्तर और भी बढ़ी है। मिलेनियम गोल्स की दिशा में आगे बढ़ने में हम क्यों पीछे रह गये, यह सोचनीय विषय है।
उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों की औसत आय भले ही हमसे कम है
उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों की औसत आय भले ही हमसे कम है, मगर हैप्पीनैस इंडैक्स में ये राज्य आगे हैं। इसका कारण इन राज्यों द्वारा अपने स्वभाविक बुनियादी अवसरों का बेहतर संयोजन है। हिमाचल में आज भी भवन निर्माण में स्थानीय लकड़ी का अधिक उपयोग होता है। स्थानीय भवन शैली, समाज संरक्षित है। यही स्थिति मेघालय, मिजोरम आदि राज्यों में भी है। इन राज्यों में यह एक विकसित व्यवसाय है। लाखों लोग इसमें रोजी-रोटी पा रहे हैं। हमने सबसे पहले अपनी भवन शैली छोड़ी, फिर स्थानीय औजारों का उपयोग छोड़ा, फिर स्थानीय वस्त्र, आभूषण व भेष-भूषा छोड़ी। परिणाम लाखों लोगों की आजीविका छूट गई, कब छूटी हमें ज्ञात भी नहीं हुआ। शिल्प पहले गया, फिर शिल्पी गये, अब शिल्पकार संबोधन भी विलुप्त हो रहा है। मैंने उत्तराखण्ड भवन शैली ओड़-मिस्त्री, गिरी, बढ़ई, लौहार गिरी को बढ़ावा देने के लिए बहुत तड़फड़ाहट दिखाई। इन्हें पेंशन देने के अतिरिक्त विभागों में प्रत्येक निर्माण में 20 प्रतिशत उत्तराखण्डी शिल्प शैली की अनिवार्यता का आदेश जारी किया। पी0डब्ल्यू0डी0, पर्यटन आदि सभी विभागों को खूब झकझोरा, ढांक के तीन पात। कभी कारीगर नहीं मिलने का बहाना, तो कभी इस कार्य हेतु दक्ष डिप्लोमाधारियों के अभाव का रोना। अनन्तोगत्वा मैंने मुंशी हरिप्रसाद टम्टा उत्तराखण्डी शिल्प उन्नयन संस्थान के निर्माण का निर्णय लिया व शिलान्यास किया। यह संस्थान पुश्तैनी दक्षता व अभिरूची को संवार कर आधुनिक रूप देने का कार्य करेगा। दुःख की बात है कि, वर्तमान सरकार इस संस्थान के लिए धन नहीं जुटा रही है। इधर मैंने अपने पुश्तैनी घर का जिर्णाेधार पुरानी शैली में किया है। मैंने अपने घर के साथ अपनी फोटो पोस्ट की है, उसको अब भी लाईक्स मिल रहे हैं। मगर मेरे गाॅव व मेरे परिवार में भी आधुनिक ईंट, लैन्टर वाले घर बन रहे हैं। मैंने अल्मोड़ा व पुरोला की नगर पालिकाओं को पुरानी शैली शिल्प के मकान व रास्ते बनाने के लिए विशेष ग्रान्ट दी, इसी तर्ज पर व्यास, दारमा व मलारी क्षेत्र में पुरानी भवन शैली के संरक्षण व इन दोनों में ‘‘होम स्टे’’ योजना लागू करने के लिये, विशेष कदम उठाये। अल्मोड़ा व पुरोला तो इस दिशा में आगे नहीं बढ़े, मगर गुंजी, नपलच्यू, कूटी आदि में होम स्टे योजना स्थानीय भवन शैली के कारण काफी लोकप्रिय हो रही है। मसूरी का शहीद स्मारक भी इसी शैली से बनाया गया है। गाॅव का लौहार व बाजार का स्वर्णकार राज्य के पहले कारखाने दार थे। औजार अब भी बन रहे हैं, बिक रहे हैं, मगर राजस्थान से लोहार आकर यह कार्य कर रहे हैं। हमारे स्वर्णकारों का 75 प्रतिशत स्थान अन्य लोगों ने ले लिया है क्या? अद्भुत स्वर्ण व चाॅंदी के जेवरों की शिल्प शैली धीरे-2 विलुप्त हो जायेगी?
असम का प्रसिद्ध अंगवस्त्र है, ‘‘गमछा’’
असम का प्रसिद्ध अंगवस्त्र है, ‘‘गमछा’’। प्रत्येक उत्तर पूर्व के राज्य का एक वस्त्र प्रतीक है। त्यौहारों में परम्परागत वस्त्र पहनना सौभाग्य सूचक माना जाता है। ‘‘विहू’’ के लोक पर्व पर प्रत्येक असमी व्यक्ति परम्परागत पोशाक में दिखाई देता है। उत्तर पूर्व का प्रत्येक राज्य अपने परम्परागत वस्त्र, बर्तन, बांस व लकड़ी निर्मित, धनुष-बाण, पशु, पक्षी, टोपी, जाफी आदि से आगुन्तक का सम्मान करते हैं। यहां तक की दिल्ली व देश के दूसरे हिस्सों में भी अपने प्रतीक चिन्हों से हमारा स्वागत करते हैं। अपने परम्परागत वस्त्र हमने काफी पहले छोड़ दिये, बांश से बनी चीजों का उपयोग छोड़ दिया, परिणाम स्वरूप दो-तीन लाख दर्जी व वारूड़ी व लौहार रोजगार विहीन हो गये हैं। हम धन्य हैं, हमने अपने शिल्पी को मजदूर बना दिया, जबकि दुनियां मजदूर को हुनर देकर शिल्पकार बनाती है। मैंने पूछा कि, अंगवस्त्र अर्थात गमछे का क्या अर्थशास्त्र है। असम में यह 15 प्रतिशत आवादी को पूर्ण या आधा रोजगार देता है, विशेषतः महिलाओं व बच्चों को। यही स्थिति लकड़ी के बने गैंडे, हाथी, बांश की जाफी (एक प्रकार का छत्र) व पीतल के धार्मिक प्रतीक सरायो का है। छोटे से छोटे बाजार में भी दो-चार दुकानें इन स्थानीय उत्पादों से सजी हुई दिखाई देती हैं। मैंने जानकारी इकठ्ठा की और मुझे कहते हुये खुशी है कि, असम सहित उत्तर पूर्व के राज्यों से हस्त निर्मित वस्तुओं का भारत से कुल निर्यात में 5 प्रतिशत स्थान है। उत्तराखण्ड कहां खड़ा है? मंैने तून, देवदार, गेठी, शिमल आदि की काष्ठकला को प्रोत्साहन देने हेतु त्रिस्तरीय अर्थात पौंधा रोपण से लेकर शिल्प काष्ठ, शिल्प निर्माण व वितरण कार्य की योजना बनाई। इसी प्रकार बांस, रिंगाल की कला कृतियों व घरेलु उपयोग की वस्तुओं के निर्माण को भी प्रोत्साहित किया। बोक्सा, बनराजी महिलाओं को भी इसके साथ जोड़ा। रेशा धारक पौंधों को बढ़ाने व इनके रेशों व रेशा निर्मित वस्तुओं के विपणन को आगे बढ़ाने के लिये संगठित प्रयास किये गये हैं। नन्दादेवी हैण्डलूम एण्ड हैण्डीक्राफ्ट एक्सीलेंस सेन्टर इसी सोच के साथ अल्मोड़ा व डुण्डा में संचालित किया गया है। हमने वन निगम के माध्यम से उत्तर पूर्व से ट्रेनर भी मंगवाये। प्रयास आज भी हो रहे हैं। मगर सत्यता यह है कि, यह प्रयास कभी भी राज्य का महा अभियान नहीं बन पाया। इस सत्य को लिखते वक्त एक पूर्व मुख्यमंत्री के हाथ कांप रहे हैं, क्योंकि मैं जानता हॅू कि, इन प्रयासों को महा अभियान बनाने का अवसर मैंने भी गंवाया है। यह सत्य है कि, हमारी गरीबी व विपन्नता के समाधान के लिए आवश्यक कुछ रास्तों से कुछ रास्ते इस दिशा में भी जाते हैं । मैं तीन वर्षों में केवल आधा-अधूरा, उबड़-खाबड़ रास्ता ही बना पाया। सोचता हॅूं कल और भी आयंेगे, हमसे बेहतर कहने वाले व बेहतर करने वाले आयें, शीघ्र आयें।
शायद मेरा शब्द व वाक्य चयन कुछ ज्यादा निराशाजनक हो रहा है
शायद मेरा शब्द व वाक्य चयन कुछ ज्यादा निराशाजनक हो रहा है। ऐसा नहीं है कि, स्थिति व सोच में परिवर्तन नहीं आ रहा है। कई संस्थायें काष्ठ कला, एपण, हौजरी, रिगांल, बांस, रेशा वस्त्र, रंगोली, घाघरा-पिछौड़ा, टोपी बनाने आदि में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। मगर यह कुछ उदाहरण मात्र हैं, बड़े उत्तराखण्डी परिपेक्ष में। देखिये न देश का प्रत्येक बड़ा नामचीन खाद्यान्न आधारित उद्योग जिसमें नैस्ले व आई.टी.सी. जैसे नाम शामिल हैं, आॅटोमोबाईल, फार्मास्यूटिकल्स सहित बड़े-2 उद्योग सब यहां हैं। एन्सिलरिज छोड़िये, छोटे-2 सम्बद्ध उद्योग भी यहां नहीं पनप पाये। राज्य में लघु व सूक्ष्म उद्योगों को इन बड़े उद्योगों की उत्पादन व विपणन श्रंखला से जोड़ने हेतु नीतिगत परिवर्तन की आवश्यकता है। मैंने दोनांे उद्योग संघों से व्यापक चर्चायें की। राज्य की विडंबना यह है कि, उसके पास ऐसे लोग नहीं हैं जो सामान्य ज्ञान आधारित सोच को वास्तविकता के धरातल पर उतारने में सक्षम हो।
निष्कर्ष धरातल पर न उतरें तो यह अच्छी बात नहीं है
अच्छी चर्चायें व उनके निष्कर्ष धरातल पर न उतरें तो यह अच्छी बात नहीं है। हमें ऐसे अधिकारी चाहिये, जो आईडियाज को ‘‘मिशनरीजील’’ से आगे बढ़ा सकें। मैं इस कार्य में जुटे हुये लोगों से हमेशा कहता था कि, यदि सफलता मिलेगी तो, मैं सैहरा आपके सर पर बाधूंगा और यदि विफल हो जाओगे, तो विफलता मेरी होगी। दैवीय आपदा कार्यों में, मैं हमेशा अधिकारियों की ढाल बना। यदि मैं ऐसा नहीं करता तो अधिकारी साहसपूर्वक कार्य नहीं कर पाते। राजनेता को नेतृत्व करना चाहिये। हमारे राज्य में फ्रन्ट से लीड करने वालों का राजनीति व शीर्ष ब्यूरो क्रैसी, दोनों में अभाव सा होता जा रहा है। यही कारण है, बिखरी हुई सम्भावनाओं को हम समेट नहीं पा रहे हैं। कुटीर उद्योग या छोटे उद्यम शब्द जब तक हमसे बेगाना रहेगा, हमारा कल्याण नहीं है। आॅटोमोबाइल व फार्मेसिटीकल क्षेत्र में मैंने कुछ पहलें प्रारम्भ की। अच्छी चल निकली, मगर उनको लक्ष्य तक पहुचाने से पहले मैं ही चलता हो गया।
उत्तराखण्ड में बड़े-2 इनवेस्टमेंन्ट समिट, वैलनेस समिट, 2020 समिट हो रहे हैं
अब उत्तराखण्ड में बड़े-2 इनवेस्टमेंन्ट समिट, वैलनेस समिट, 2020 समिट हो रहे हैं। अच्छी बात है। मगर बर्तन में आयेगा तो उतना ही, जितना उसका आकार होगा। उत्तराखण्ड कभी जड़ी-बूटी राज्य हो जाता है, कभी ऊर्जा प्रदेश, कभी योगा प्रदेश, कभी पर्यटन प्रदेश अब इनवेस्टमेंट डेस्टीनेशन। बडे़ लोग छोटी बातों का ख्याल नहीं रख पाते। एक महाशय ने उत्तराखण्ड में संजीवनी तो उगा दी, मगर राज्य में जड़ी-बूटी की पहली संगठित नर्सरियां, गंगी (टिहरी), सांई पोतो (मुनस्यारी) में स्थापित करने की पहल मेरे कार्यकाल में हुई। राज्य में जड़ी-बूटी उत्पादन की बड़ी सम्भावना है, मगर जड़ी-बूटी नर्सरी उगाने के कार्य हेतु सुगन्ध पादप संस्थान, जड़ी-बूटी संस्थान, उद्यान विभाग, वन विभाग व भेेसज संघ को संगठित रूप से प्रयास करने चाहिये। मेरी सरकार खेती, फल व जड़ी-बूटी की उत्पादन हेतु कास्तकारों की भूमि को ठेके पर देने के लिये, भूमि लीज नीति बनाकर गई है। कई अधिकारियों से प्रयास करवाने के बाद मैंने यह कार्य श्री दरवान सिंह गब्र्याल, आई.ए.एस. को सौंपा और उन्होंने वर्ष 2016 में यह नीति बनाकर राज्य को दी। इस कार्य के अभाव में जड़ी-बूटी सहित कृषि उत्पादों का संगठित व्यवसायिक उत्पादन सम्भव ही नहीं है। आज की सरकार इस नीति पर अमल करने के बजाय उत्तराखण्ड की भूमि को बड़े-2 पूंजीपतियों को देने जा रही है।
महिला उद्यमिता को बढ़ावा दिये बिना मीण ग्रारीबी को दूर नहीं कर सकते
महिला उद्यमिता को बढ़ावा दिये बिना, आप गरीबी विशेषतः ग्रामीण गरीबी को दूर नहीं कर सकते हैं। महिला हर कार्य को सहजता से कम पूंजी के साथ कर सकती है, मैंने उनके इसी गुण पर फोकस किया। दलहन, जड़ी-बूटी सहित खेती के उत्पाद, दुग्ध उत्पादन, बकरी-मुर्गी पालन थोड़ी ट्रेनिंग के बाद मशरूम उत्पादन ऐसे क्षेत्र हैं, जहां आज महिलायें अच्छा कर रही हैं। हमारी प्रत्येक महिला अन्नपूर्णा है, जन्मजात पाक शास्त्री हैं। इन्द्रमा भोजनालयों के माध्यम से मैंने उनमें रूची जागृत की और अब कई महिलायें ढाबे, होटल व शादी-व्याह में भोजन पार्टियां संचालित कर रही हैं। कई क्षेत्रों में महिलायें मशरूम उत्पादन से जुड़ गई हैं। मशरूम गर्ल दिब्या रावत इस काम को जोर-शोर से आगे बढ़ा रही हंै। मुझे एक दुःख हमेशा सताता रहेगा कि, मैं महिला उद्यमिता के लिये, एक अल्प व्याज दर वाली ऋण प्रणाली व कोष नहीं बना पाया। यूं मैंने उधमसिंहनगर में सिडकुल के अन्दर दो सौ एकड़ भूमि महिला उद्यमियों के लिये आरक्षित की है। मगर एक पृथक ट्रेनिंग व ऋण मड्यूल के अभाव में महिला उद्यमिता अभी भी अपने शैशवकाल में ही है। राजनैतिक व्यक्ति पर यह कहावत पूर्णतः लागू होती है कि, राजनैतिक व्यक्ति का केवल एक बार जन्म होता है, जो चूका वह चूक गया। मेरे मन में कई योजनाये थी और हैं, परन्तु अवसर मेरा साथ छोड़ चुका है। मैं जिन योजनाओं को लागू कर गया वही मेरे साथ खड़ी हैं। महिला ऋण व विपणन मोड्यूल आगे न बढ़ाना मेरी चूक है।
छात्रा शिक्षा की योजना को बहुत बढ़ाने की आवश्यकता
महिला सशक्तिकरण में छात्रा शिक्षा की योजना को बहुत बढ़ाने की आवश्यकता है। छात्राओं को उच्च शिक्षा तक प्रोत्साहन के लिये मैंने पुस्तक, वर्दी, साईकिल से आगे बढ़कर अनेक प्रकार की छात्रवृतियों से छात्रा शिक्षा को आच्छादित किया। गरीब छात्रा को शिक्षा हेतु गौरादेवी कन्याधन योजना को बढ़ाकर 50 हजार रूपया करना अतिमहत्वपूर्ण निर्णय रहा है। मैंने ग्रामीण क्षेत्रों में दो दर्जन महाविद्यालय, 8 नर्सिंग व जे.एन.एम. काॅलेज खोले। इन संस्थाओं से छात्रा उच्चशिक्षा व तकनीकी शिक्षा पाकर बहुत आगे बढ़ रही हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के महाविद्यालयों में छात्रायें अधिक संख्या में हैं। आज मैं महसूस कर रहा हॅू कि, इन महाविद्यालयों के साथ आई.टी.आईज व पाॅलिटेक्निक्स को भी सम्बद्ध किया जाना आवश्यक था। औपचारिक शिक्षा से आगे बढ़कर बालिकाओं को तकनीकी शिक्षा से संबद्ध किया जाना आवश्यक है। इस संबन्ध में आईटीआईज व पाॅलिटेक्निकों में नये विषय प्रारम्भ करने चाहिये, ताकि तकनीकी शिक्षा महिला उन्मुखी हो सके। इन संस्थाओं में बड़े शिल्पों के स्थान पर छोटे-2 शिल्पों को विषय के रूप में सिखाया जाना चाहिये। मुझे दुःख है, मैं ऐसा नहीं कर पाया। पद पर रहते मुझे यह समझ नहीं आयी।
लोग यह जानें मैंने राज्य के लिये क्या-2 किया
मैं बड़ी उलझन में हॅू, चाहता यह हूॅं कि, लोग यह जानें मैंने राज्य के लिये क्या-2 किया अर्थात हरीश रावत का तीन वर्षों का लेखा-जोखा लिखना चाहता हूॅ। विडम्बना यह है कि, सोच के दायरे में बहुत सारी असफलतायें मुंह चिढ़ाने को सामने आकर खड़ी हो जा रही हैं। ऐसी एक असफल योजना मेरा गाॅव-मेरा धन है। म्यौर गौं व म्यौर स्कूल भी है। मेरा गाॅव-मेरी सड़क, मेरा वृक्ष-मेरा धन, मेरी बेटी-मेरा धन, यह सोचें तो सफल हुई। यह वर्तमान सरकार की भूल है कि, उन्होंने ऐसी कई योजनाओं को बन्द कर दिया। मैं इन योजनाओं को पूर्णतः क्रियान्वित करके निवृत हुआ था।
त्रिवेन्द्र सरकार से अपेक्षा थी कि, वे इन्हें और आगे बढ़ायें
त्रिवेन्द्र सरकार से अपेक्षा थी कि, वे इन्हें और आगे बढ़ायें। आप हिमाचल को देखिये, वहां प्रत्येक गाॅव सड़क से जुड़ा है, चाहे कच्ची सड़क ही क्यों न हो। सामान्यतः पी.डब्ल्यू.डी. व पीएमजीएसवाई इस कार्य को खर्चीला बना देते हैं। मैंने यह दायित्व आर.ई.एस. व जिला पंचायतों को सौंपा। आज मेरा गाॅव-मेरी सड़क योजना बन्द है। मैंने वर्षाती पानी संग्रह, ग्रामीण ड्रेनेज व पर्वतीय चकबन्दी के नये विभाग बनाये। बिना तर्क-विर्तक के सीमान्त विकास विभाग के साथ इन्हें भी बन्द कर दिया गया है। सिंचाई विभाग बड़े जलाशय बना सकता है, छोटे बरसाती पानी के जलाशय कौन बनायेगा? गाॅवों में रास्ते बनते हैं, ड्रेनेज के अभाव में गाॅव के रास्ते खराब होते जा रहे हैं। सी.सी. मार्ग बनने के साथ ही टूट जा रहे हैं। पर्वतीय चकबन्दी, के उपेक्षा पर तो ग्रन्थ लिखा जा सकता है, जबकि मैं राज्य को पर्वतीय चकबन्दी काॅनट्रेक्ट फार्मिंग व भू-बन्दोबस्त का कानून व नियमावली बनाकर के दे गया हॅू।
(पूर्व सीएम हरीश रावत की फेसबुक वाल से साभार)