देहरादूून,संवाददाता- सर्जिकल स्ट्राइक और नरकंकालों को लेकर सियासत एक सी। वो भाजपा जो सर्जिकल स्ट्राइक पर कांग्रेस की कार्यप्रणाली पर लगातार सवाल उठा रही है वही भाजपा नरकंकालों पर कुछ-कुछ वैसा ही अंदाज अपना रही है जिसे लेकर सर्जिकल स्ट्राइक पर कांग्रेस कटघरे में है। अब सवाल ये है कि भले ही मुद्दे अलग-्अलग हों लेकिन कमोबेश सियासी राजनीति का पारा चढा हुआ है। असल मे दोनों राजनैतिक दलों को न मरने वालों से मतलब है और न कोई भावनात्मक लगाव। असल में अब होड़ राजनीति के कीचड़ में पहला पत्थर मारने की लगी हुई है। इस राजनीति को क्या नाम दें ये समझ से परे है।
सियासी झल्लाहट का सच ये है कि नरकंकालों पर सियासत करने वाली ये दोनों पार्टियां आरोपों और प्रत्यारोपों के बीच तीन साल पूर्व आई भयानक आपदा के सच पर तांडव खेल रही हैं। कौन मरा कौन जिया,कौन हैं वो लोग जो अकाल मौत में समा गए। किसके बच्चे पीछे छूटे और कितने बुजुर्ग । कितनी बहिने और कितनी मांए। पिता के मजबूत कंधे भी कब अकड़कर जमीदोज हो गए इसका दर्द किसको है ? कम से कम इन राजनीतिक दलों को तो कतई नही। सर्च ऑपरेशन चल रहा है 31 नरकंकालों की पुष्टि हो चुकी है और इन सियासतबाजों को दिखाई दे रहा है तो सिर्फ चुनाव। इनकी आंखों का पानी सूख चूका है। आत्मा मर चुकी है और भावनाएं तो नित्य नए कपट और छल सोच रही है। सवाल ये नहीं कि नरकंकाल आखिर क्यों मिल रहे हैं सवाल ये भी नहीं कि सर्च ऑपरेशन बंद क्यों कराए गए। सबसे बड़ा सवाल ये है कि इन नरकंकालों पर सियासत अभी और कितना गहराएगी। किसी ने सच ही कहा है कि, घर से निकलो तो पता जेब में डालकर निकलो, क्योंंकि हादसे चेहरों की पहचान मिटा देते हैं।
हजारों ऐसे लोग जिनके पहचान आकाल मौत ने मिटा दी उनके यदि नरकंकालों पर भी देवनगरी में इस प्रकार घृणित राजनीति पर शर्म आ रही है। इस धर्मनगरी से प्रेम और संस्कृति की पहचान का दावा करने वाले सियासतदां को अब अपने अंदर झांक कर देखना चाहिए । राजनीति का ये दलदल अभी और कितने जख्म देगा कहना मुश्किल है।