किच्छा (मोहम्मद यासीन)- माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंदे मोहे, एक दिन एेसा आयेगा मैं रोंदूंगी तोहे, ये कहावत कभी कुम्हारों पर सटीक बैठती थी जब विदेशी उपकरणों ने कुम्हारों के हाथों की कारीगरी से बने दिये और बर्तनों की बिक्री कम कर दी. आइये पढ़िए कुम्हारों की आपबीती के बारे में.
कुम्हार दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज
राज्य सरकार हो या फिर केन्द्र सरकार दोनों ही हस्त शिल्पकारों को बढ़ावा देने की बाते करते हैं, लेकिन सच्चाई इसके विपरित है। आज के कुम्हारों की स्थिति पहले से और खराब होती जा रही है. क्योंकि एक तो बर्तन के लिए मिट्टी दूसरे राज्यों से लानी पड़ती है. उसके बाद बर्तन और खिलौने बेचने के लिए परेशानी उठानी पड़ती है। जिसके कारण अलाम ये है कि कुम्हार दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हैं। मिटटी के काम की बदहाल स्थिति को देखते हुए बच्चे भी इस काम को भाविष्य मे करने को तैयार नहीं हैं। क्योंकि मिट्टी के बर्तन का करोबार सिर्फ त्यौहारों तक सीमित होकर रह गया है।
एक जमाना था कि मिट्टी के बर्तनों ओर दियो से लोग अपने घरों को रोशन करते थे
चाइना के प्रोडक्ट बाजारों में उतरे हैं तब से लेकर अब तक मिट्टी के बर्तनों ओर दियों का कोई भी प्रयोग नहीं करता है एक जमाना था कि मिट्टी के बर्तनों ओर दियो से लोग अपने घरों को रोशन किया करते थे. लेकिन अब लोग चकाचोंध दुनिया की ओर भाग रहे हैं और चाइनीज झालरों का प्रयोग कर रहे हैं.
चाइनीज झालरों ने बिगाड़ा कुम्हारों का बजट
उधम सिंह नगर के कुम्हारों की मानें तो जब से चाइना के प्रोडक्ट बाजारों में उतरे हैं तब से लेकर अब तक मिट्टी के बर्तनों ओर दियों का कोई भी प्रयोग नहीं करता है एक जमाना था कि मिट्टी के बर्तनों ओर दियो से लोग अपने घरों को रोशन किया करते थे. लेकिन अब लोग चकाचोंध दुनिया की ओर भाग रहे हैं और चाइनीज झालरों का प्रयोग कर रहे हैं.
मिट्टी के दिये सिर्फ और सिर्फ खाना पूर्ति के लिए ले जाते हैं लोग
कुम्हारों की मानें तो पहले ही मिट्टी के दियों ओर बर्तनों की बिक्री होनी शुरु हो जाती थी और उसकी तैयारी में कुम्हार एक दो माह से पहले ही तैयारी शुरु कर देते थे. लेकिन अब आलम ये है कि मिट्टी के दिये लोग सिर्फ और सिर्फ खाना पूर्ति के लिए ले जाते हैं. बाजारों में लोगों की रोनक तो है लेकिन मिट्टी के बर्तनों में लोगों की रुचि कम हो गयी है. लेकिन इतनी मंगाई में दियों को बनाने में काफी खर्चा आ जाता है.
बरेली से मंगाया जाती है मिट्टी
पहले तो जो मिट्टी बर्तनों को बनाने में लगती थी वो यहीं मिल जाती थी लेकिन अब बरेली से मंगाया जाता है. अब आलम ये है कि सुबह से शाम तक कभी पाँच सौ तो कभी हजार रुपये तो कभी कभी कुम्हारों की बिना बोनी के ही घरों को लौटना पड़ता है. बावजूद इस के अभी भी कुम्हारों को आस है कि अच्छे दिन जरूर आएंगे।