2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जरिए की गई नोटबंदी के बाद देश के पचास लाख लोग बेरोजगार हो गए। नौकरी खोने वाले अधिकतर लोगों असंगठित क्षेत्र से आते हैं। ये खुलासा एक ताजा रिपोर्ट में हुआ है जिसे अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट (सीएसई) ने ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2019’ नाम से जारी किया।
इस रिपोर्ट के प्रमुख लेखक प्रोफेसर अमित बसोले ने कहा, ‘यह कुल आंकड़ा है. इन आंकड़ों के हिसाब से पचास लाख रोजगार कम हुए हैं, कहीं और नौकरियां भले ही बढ़ी हों लेकिन ये तय है कि पचास लाख लोगों ने अपनी नौकरियां खोई हैं. यह अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है, विशेष रूप से जब जीडीपी बढ़ रही हो. कार्यबल घटने के बजाए बढ़ना चाहिए.’
बसोले ने कहा कि आंकड़ों से पता चलता है कि नौकरियों में गिरावट नोटबंदी के समय (सितंबर और दिसंबर 2016 के बीच चार महीने की अवधि में) के आसपास हुई.
रिपोर्ट में कहा गया है कि मोदी द्वारा नोटबंदी के ऐलान के समय के आसपास ही लोगों की नौकरियां जानी शुरू हुई लेकिन उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर इन दोनों के बीच संबंध पूरी तरह स्थापित नहीं किया जा सकता.
हालांकि यह पूछने पर कि नौकरियों के छूटने और रोजगार के अवसर नहीं मिलने के संभावित कारण क्या हो सकते हैं? इस पर बसोले ने कहा, ‘नोटबंदी और जीएसटी के अलावा जहां तक अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का सवाल है, मुझे कोई अन्य कारण नजर नहीं आता.’
नौकरी खोने वाले इन 50 लाख लोगों में शहरी और ग्रामीण इलाकों के कम शिक्षित पुरुषों की संख्या अधिक है.
रिपोर्ट में कहा गया, ‘1999 से 2011 तक बेरोजगारी दर दो से तीन फीसदी के आसपास रहने के बाद यह 2015 में बढ़कर पांच फीसदी के आसपास हो गई और 2018 में छह फीसदी से अधिक हो गई. पीएलएफएस और सीएमआईई-सीपीडीएक्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2018 में पूर्ण बेरोजगारी दर छह फीसदी के आसपास रही, जो 2000 से 2011 की तुलना में दोगुनी है.’