देहरादून। नई टिहरी के जौनपुर कोटा गांव में एक दलित की सवर्णों ने पीट पीट कर हत्या कर दी लेकिन हैरानी है कि दलितों के मसीहा बनने वाले नेताओं के मुंह से अबतक संवेदना का एक शब्द भी नहीं सुनाई पड़ा। सबसे बड़ी हैरानी इस बात की है कि सत्ताधारी बीजेपी ने भी इस पूरे मसले पर चुप्पी साध रखी है। दलितों के कल्याण के दावे करने वाली बीजेपी ने इस मामले की सार्वजनिक तौर पर संवेदना भी प्रकट नहीं की। दुर्भाग्यपूर्ण ये है कि इस पूरे मामले में किरकिरी से बचने के लिए नेता अब ऊलजलूल बयान देने लगे।
जौनपुर ब्लाक के श्रीकोट गांव के जितेंद्र दास (23) को दबंगों ने सिर्फ इसलिए पीट पीट कर मार डाला क्योंकि वो सवर्णों के सामने कुर्सी पर बैठकर खाना खा रहा था। इस पिटाई से बुरी तरह घायल हुए जितेंद्र दास की देहरादून के अस्पताल में कुछ दिनों बाद मौत हो गई। जितेंद्र की मौत ने पूरे राज्य की कानून व्यवस्था पर सवाल तो उठाए ही साथ ही उन नेताओं के सामने भी आईने रख दिए जो दलित उत्थान की बातें करते हैं। दलितों के मसीहा बने घूमने वाले नेता ऐसे समय में गायब हैं।
बीजेपी के प्रदेश प्रवक्ता देवेंद्र भसीन ने खबर उत्तराखंड के पूछे जाने पर अपना बयान साझा किया है। इस बयान में उन्होंने कहा है कि, ये घटना दुर्भाग्यपूर्ण है, भाजपा हमेशा सामाजिक समरसता में विश्वास रखती है और पालन भी करती है, पूरे मामले में सरकार गंभीर है, दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जा रही है, कुछ लोगों को पकड़ा भी गया है बाकी लोगों को भी जल्द पकड़ा जाएगा, कांग्रेस जो इस मामले में राजनीति कर रही है वह दुर्भाग्यपूर्ण है, इस प्रकार के मामले राजनीति के नहीं आपराधियों पर नियंत्रण के होते हैं।
देवेंद्र भसीन के साथ ही बीजेपी के विधायक खजानदास ने भी खबर उत्तराखंड के साथ बातचीत में इस कृत्य की निंदा की है और कहा है कि वो पी़ड़िता परिवार को न्याय दिलाने की भरसक कोशिश करेंगे। खजानदास की माने तो मरने वाला जितेंद्र दास उनका करीबी रिश्तेदार था और ये उनका अपना ही गांव है।
हालांकि ये बात समझ से परे है कि इतना करीबी रिश्तेदार होने के बावजूद खजानदास ने अब तक चुप्पी क्यों साध रखी है।
इस मसले पर हमने दलित उत्थान के लिए प्रयासरत होने के दावे करने वाले बीजेपी विधायक देशराज कर्णवाल से भी बात करने की कोशिश की लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो पाया। संपर्क भले ही न हुआ लेकिन देशराज कर्णवाल न अब तक मृतक के परिवार से मिलने पहुंचे हैं और न ही उन्होंने इस संबंध में किसी कानूनी प्रक्रिया के लिए सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश की। जाहिर है कि दलित की मौत के बाद अब नेताओं को चुप्पी ही अच्छी लग रही है।
दलितों के घर भोजन करने का दिखावा करने वाले तमाम नेता इस रूढ़िवादिता के खिलाफ आवाज नहीं उठाना चाहते हैं। सत्ताधारी दल के किसी नेता ने अब तक मंदिर में दलितों के प्रवेश को सौ फीदसी तय कराने के लिए कोई आवाज नहीं उठाई है। संभवतः उन्हें वोट बैंक के खिसक जाने का डर है।
वहीं विपक्ष अब राज्य में कानून व्यवस्था के नाम पर हमलावर तो है लेकिन इस रूढ़िवादी परंपरा के खिलाफ खुल कर खड़ा होने का माद्दा उसमें भी नहीं दिखता। कांग्रेस नेताओं ने इस मसले के बहाने राज्य सरकार पर सवाल खड़े किए हैं। लेकिन वो भी दलितों पर होने वाले ऐसे अत्याचार के खिलाफ सिर्फ निंदा प्रस्ताव तक ही सीमित रहना चाहते हैं।
ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या राजनीतिक दल दलित उत्थान के नाम पर नौटंकी करते है? दलितों के घर भोजन करने जाने वाले राजनीतिज्ञ ऐसे दौर में कहां गायब हो जाते हैं।