देहरादून- जाती हुई 20 वी सदी का आखिरी लम्हा उत्तराखंड के लिहाज से कभी न भूलने वाला कालखंड रहा है। इतिहास के पन्नो मे दर्ज उस गुजरे वक्त को वो पीढ़ी कभी नहीं बिसर सकती जिसने उसके साथ कदमताल की है। जिन विचारों ने बीसवीं सदी के शुरूआत में चंद मस्तिष्कों में जन्म लिया वे विचार 20 सदी के 90 के दशक में अलग राज्य की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए जनआंदोलन के रूप में अपनी झिझक को फेंक सड़कों पर उतर आए। यही वह समय था जब उसे पहाड़ी होने पर गर्व महसूस होता था। यह वही दौर था जब धनारी ने खटीमा तक और गंगोलीहाट से गंगी और गंगनानी तक अलग राज्य से अपनी पहचान की लालसा ने मातृशक्ति के सदियों से चुप लबों को आजाद कर दिया। जवानो के जोश ने भूतपूर्व सैनिकों और तमाम राज्य कर्मियों के जोर ने उम्मीदों को परवान पर चढाया ।यही वह वक्त था जब अलग पहाड़ी राज्य पाने का मकसद हर दिलों दिमागों पर छाने लगा। नतीजा ये हुआ कि गांव की चौपालों से लेकर शहर की गोष्ठियों में नारे गढ़े जाने लगे और जनगीत सड़कों पर अावाम की रूह और रगों को कंपकपाने लगे। इस पहाड़ी राज्य के गांवों, कस्बों और शहरों का मिजाज़ इंकलाबी रंग में रंगने लगा। एक आवाज़ उठती ‘कोदा झंगोरा खांएगे’ सैकड़ों आवाज उसे एक सुर मे पूरा करती ‘उत्तराखंड बनाएंगे।’ चूड़ियों की खनक के साथ मातृशक्ति के हाथ हवा में मुट्ठियों की शक्ल में ढल कर लहराने लगते। लगता था मातृ शक्ति फलक का सीना चीर कर उसके नीले रंग के लहू से उत्तराखंड राज्य का समृद्ध नक्शा बना देगी। अब तक जिस मां ने घर की देहरी को सिर्फ घास और लकड़ी के लिए ही लांघा था उसने अपनी औलाद के सुनहरे कल के लिए गांव की सरहदे तक लांघ दी। जो मां पहाड़ को अपनी पीठ पर लादकर भी कभी उफ्फ नही बोली उसकी जुबां से जंगी नारे दहकते शोलों की तरह फूंटने लगे। युवा खून मां के साए में बुजुर्गों के बताए रास्ते पर जोश के साथ दौड़ने लगा। न खादी का डर न खाकी का खौंफ ।
उत्तराखंड कोई खैरात में नहीं मिला, आंदोलन के हवन में शहीदों ने अपने खून की आहूतियां दी हमारे आने वाले कल के लिए, हमारी खुशहाली के लिए। उन महान आंदोलकारियों ने अपने आज को आंदोलन की बलिवेदी पर न्योछावर किया। उस आंदोलन में जनता ने कोई हिंसा नही की लेकिन हुक्मरानों की हर तामील बजाने वाली खाकी ने खून की होली खेलने से भी कोई परहेज नहीं किया। तब बना ये पहाड़ी राज्य जब पहाड़ियों ने जंग लड़ी और आखिरकार 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड भारत के नक्शे पर 27 वें राज्य के रूप में वजूद में आया।
राज्य की जनता ने पहला स्थापना दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया। बेहिसाब जश्नों के दौर कई दिनों तक चले। शायद किसी बार-त्यौहार पर इतना जोश और जुनून न दिखा हो जितना कि उस पहले स्थापना दिवस पर पूरे राज्य में देखने को मिला। जगह-जगह मंडाण लगे होली और बग्वाल सब एक साथ मनाए गए। इस उम्मीद से कि पहाड़ी जनसंघर्ष की हिना का रंग आने वाले कल मे और चटकीला होगा। उसकी वजह थी पड़ोसी राज्य हिमाचल की समृद्धि राज्य वासियों की आंखों में जो बसी थी। लेकिन इन 16 सालों पर नजर दौड़ाई जाए तो इस राज्य की सियासत अब तक कोई डॉ यशवंत परमार जैसा नेता नहीं जन पाई। ड़ा यशवंत परमार ने समृद्ध हिमाचल की आधारशिला स्थानीयता की मजबूत शिला से तैयार की
थी। उसमें जल जंगल और जमीन की कंकरीट,सीमेंट और लोहा लगाया तब जाकर आज हिमाचल समृद्धि की जमीन पर कुलांचे भर रहा है।
राज्य की पहली अंतरिम सरकार से लेकर अब तक इस राज्य के साथ एक दुर्भाग्य ये भी जुड़ा रहा कि जिस भी नेता पर राष्ट्रीय दल ने भंरोसा जताया उस पर स्थानीय क्षत्रपों नें भंरोसा नहीं जताया। हालांकि एक अपवाद छोड़ दिया जाए हालांकि उसे भी कई बार हिलाने की कोशिश हुई। दिल्ली की पसंद देहरादून में अगवा नहीं पैराशूटी नेता मे बदल गई। स्थानीय नेताओं ने आलाकमान की पसंद पर अपनी हामी की मुहर कभी नहीं लगाई। अविश्वास की लक्ष्मण रेखा गहरी होती चली गई। उस समय की केंद्र की भाजपा सरकार ने अधिक आबादी वाले मैदानी इलाकों को पहाड़ की पीठ पर बेताल की तरह लादकर उत्तराखंड के बजाय उत्तराचल का बीज बोया उसकी फसल अब लहलहाती दिख रही है,जब अतिक्रमण की जमीन पर मालिकाना हक दिया जा रहा है। नदी नाले सिसक रहे हैं, खेत खलिहान दम तोड रहे हैं। अंतरिम सरकार जिसके कंधों पर समृद्ध उत्तराखंड की बुनियाद रखने की जिम्मेदारी थी उसने अलग राज्य की अवधारणा को बेहद हल्के मे लिया। नतीजा ये हुआ कि 16 साल बाद भी बुनियादी जरूरतें अपाहिज बनकर अलग राज्य के मकसद,स्वरूप और उसे पाने के लिए किए गए संघर्ष को चिढा रही हैं।
जिस राज्य निर्माण के लिए कोदा झंगोरा खांएगे उत्तराखंड बनाएंगे जैसा नारा लगा उस राजेय में अब स्थाई राजधानी के सवाल का जवाब 10 हजार करोड़ का पैकेज आता है। अंतिरिम सरकार के गुनाहों को ठीक कर प्रयाश्चित करने को कोई तैयार नहीं है। 2000 वाली अंतरिम सरकार अलग राज्य के निर्माण को जश्न में इतना मदहोश रही कि उसने राज्य पुनर्गठन के काएदे कानून को सलीके से समझना गवारा नहीं किया। अब आलम ये है कि आज भी उत्तराखंड के हिस्से में आई परिसंपत्तियों पर बड़ा भाई यूपी बाली की तरह कब्जा किए बैठा है छोटा भाई उत्तराखंड सुग्रीव की तरह गिडगिड़ा रहा है। सुंग्रीव की मदद तो राम ने की लेकिन चुनावों के दौर में चाहकर भी कोई राम बनने को तैयार नही।
अंतिरिम सरकार की ऐतिहासिक उपलब्धि राजधानी चयन आयोग बनाना रहा और दूसरी निर्वाचित सरकार की उपलब्धि राजधानी खोजबीन करने वाले आयोग के कार्यकाल को बढाना रहा। अंतरिम सरकार जहां अलग राज्य की मूल अवधारणा को समझ नहीं पाया वहीं बाद की निर्वाचित सरकारों ने इसे समझना मुनासिब नहीं समझा। तमाम तरक्कियों के वादों के बीच अब भी कई सवाल यक्ष प्रश्न बने हुए हैं। जबकि इनसी खीझी हुई आंदोलन की भागीदार जनता कह रही है काश केंद्र शासित प्रदेश की ही मांग की होती तो कम से कम रिस्पना और बिंदाल जैसी नदियां जिंदा होती।