देहरादून- सूबे में सरकारी स्कूलों की सेहत किसी से छिपी नहीं है। तालीम से लेकर संसाधनों को तरसते स्कूलों में सिर्फ पढाने वालों की पगार धांसू हैं। बाकि मामलों में तो राज्य के सरकारी स्कूलों फिस्सडी हैं। लेकिन ताज्जुब की बात देखिए गरीब-गुरबों के बच्चों वाले ऐसे निरीह स्कूलों पर बाल आयोग की नजरे भी इनायत नहीं होती।
आपको ये जानकर अचरज होगा कि शिक्षा के अधिकार के तहत बाल अधिकार संरक्षण आयोग को हर साल लाखों का बजट मिलता है। बावजूद इसके पिछले तीन सालों में बाल आयोग मिले कुल बजट का सिर्फ 30-40 फीसद ही खर्च कर पाया। साल 2015-16 में तो हद ही हो गई बाल आयोग ने अपने लाखों के बजट मे से सिर्फ 68 रुपये ही खर्च किए।
गौरतलब है कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग को हर साल 75 रुपये प्रति स्कूल की दर से बजट मिलता है। प्रदेश में तकरीबन 17 हजार स्कूल हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो आयोग को हर साल 12 लाख रूपए से ज्यादा की रकम सरकारी स्कूलों पर खर्च करने के लिए मिलते हैं।
इस मद की सबसे बढ़िया बात ये है कि खर्च न होने की हालत में बजट लैप्स नहीं होता बल्कि यह राशि अगले साल के बजट में समायोजित हो जाती है। इस बजट का इस्तमाल बाल संरक्षण आयोग बच्चों की शिक्षा संबंधी कार्यो में करता है लेकिंन गजब की बात ये है कि उत्तराखंड में बाल संरक्षण आयोग का ये बजट धरा का धरा रह जाता है।
काबिलेगौर बात ये है कि साल 2014-15 में इस बजट में 10 फीसद राशि खर्च करने वाला बाल आयोग साल 2015-16 में महज 68 रुपये ही खर्च कर पाया। जबकि साल 2016-17 में 50 फीसदी खर्च हुआ है। हालांकि बुनियादी सहूलियतों से महरूम सूबे के सरकारी स्कूल बेहाल हैं। कहीं छत टपक रही है और कहीं शौचालय नहीं है। जबकि बाल आयोग की दहलीज पर हर साल कई स्कूलों की शिकायत बैठी रहती हैं।