देहरादून,आशीष तिवारी- उत्तराखंड के चुनावों में कांग्रेस को मिली हार ने क्या हरीश रावत के सामने अब राजनीतिक वनवास की स्थिती पैदा कर दी है। कांग्रेस जिस नेता को अपना रहनुमां समझ रही थी उसी के राज में कांग्रेस अब तक के सबसे खराब प्रदर्शन पर पहुंच गई। ऐसे में क्या अब इस बात की संभावनाएं मजबूत हो जाती हैं कि हरीश रावत का दौर खत्म हो गया।
यूं तो हरीश रावत चार दशकों से अधिक समय से सूबे की राजनीति में एक अहम शख्सियत के तौर पर रहें हैं। बेहद कम उम्र में जनप्रतिनिधि बन जाने वाले हरीश रावत की सियासत की उम्र अब चालीस के पार हो चुकी है। हरीश रावत ने इस बीच कई उतार चढ़ाव देखे। इस दौरान मुरली मनोहर जोशी जैसे दिग्गजों को हराया भी तो इस बार अपने से बेहद कम सियासी कद के नेताओं से हार भी गए। इस बात में शक नहीं कि हरीश रावत जीवट वाले नेता हैं और हर प्रतिकूल परिस्थिती के लिए तैयार रहते हैं।
कभी हालात ऐसे भी थे कि राज्य की पहली निर्वचित सरकार की कमान संभालने वालों की लिस्ट में हरीश रावत का नाम सबसे ऊपर चल रहा था। हरीश रावत को राज्य का सीएम बनने से पहले केंद्र में लंबे समय तक मंत्री बने रहने का अनुभव भी रहा लेकिन राजनीति के स्कूल में अनुभवों की क्लास में नंबर रहने के बावजूद हरीश रावत को उम्र के छह दशक तक का इंतजार करना पड़ा।
सत्ता मिली भी ऐसे हालात में कि समूची दुनिया उत्तराखंड को डरी सहमी आंखों से देख रही थी। ढाई साल के शासनकाल में हरीश रावत ने राज्य के पर्यटन को बहुत हद तक पटरी पर तो ला दिया लेकिन अपने इर्द गिर्द फैले उस सियासी भंवर जाल में फंसते चले गए जो उनके अपने ही बुन रहे थे। हरीश रावत ने विधानसभा में बतौर मुख्यमंत्री अपने खिलाफ लगते नारों को भी सुना और अपने दस विधायकों को विपक्षी पार्टी का दामन थामते भी देखा।
हालांकि हरीश रावत फिर भी डटे रहे और उनके ही अपने शब्दों में कटा हुआ सिर लेकर फिर सीएम की कुर्सी संभाल ली। लेकिन जब तक जंग चल रही होती है तब तक हर लड़ाका यही सोचता है कि जीत उसी की होगी। हरीश रावत दावे भले ही करें लेकिन मालूम उनको भी रहा होगा कि जीत इतनी भी आसान नहीं। ये बात और है कि हरीश रावत को इतनी बड़ी हार की उम्मीद नहीं रही होगी।
ऐसे में ये सवाल उठने लाजमी हैं कि क्या अब हरीश रावत राजनीतिक सन्यास की ओर बढ़ जाएंगे क्योंकि 2019 तक उत्तराखंड में हरीश रावत के करने के लिए कुछ खास बचेगा ऐसा लगता नहीं है। हालांकि हरीश रावत के तेवरों से लगता है कि अभी वो हार मानने वाले नहीं हैं और अगली पारी तक मैदान में जमे रहेंगे। लेकिन हरीश रावत की इस इच्छा में बड़ा हिस्सा पार्टी और जनता का भी होगा।