आशीष तिवारी। (इस दृश्यांकन का सीएम के जनता दरबार में महिला अध्यापिका के हंगामें से क्या कोई लेना देना नहीं है)
दरबार लगा है। साहब हुजूर दरबारियों के साथ बैठे हैं। एक लाचार, मजबूर, निराश फरियादी महिला साहब से कहती है। साहब न्याय देना होगा।
कमबख्त। क्या मांग लिया? न्याय मांग लिया।
फिर सुनो, हे जनता।
महिला ने न्याय मांग लिया।
अब तो कुंडिया लगेंगी। परदे गिरेंगे। दरबारी मुट्ठिया खोलेंगे। पांवों को हिलाएंगे। दौड़ेंगे। मुंह दबाए जाएंगे। आंखों पर पट्टियां बांधीं जाएंगी।
न्याय मांगने वालों को कमरे से बाहर निकाला जाएगा।
बाश्शा को क्रोध आ गया। सुनो सुनो बाश्शा को क्रोध आ गया।
अब फरियादी सस्पेंड कर दी जाएगी। दरबारी उसे घेर लेंगे। दरबार से बाहर निकाल देंगे।
और लो सस्पेंड कर दी गई फरियादी।
उसने न्याय मांगा था। सुनो सुनो उसने न्याय मांगा।
वो निराश, हताश, सड़ांध मारते सिस्टम से परेशान थी तो क्या हुआ। उसे किसने हक दिया मुलुक के बाश्शा से न्याय मांगने का।
उसे मालूम नहीं…
न्याय पर तो हक सिर्फ बाश्शा का है और उसके मां बदौलत परिवार का है।
उनके दरबारियों का है।
फिर जहर खाकर चाहें कोई जान भी दे दे तो भी मां बदौलत के दरबार के झूमरों की रौशनी कम न होगी।
कमबख्त हो तुम सब। न्याय मांगने चले हो। अब बाश्शा को फिर गुस्सा आया।
बाश्शा ने फिर आदेश दिया
जाओ
न्याय को सस्पेंड किया जाता है।
सुना नहीं तुम सबने
न्याय को सस्पेंड किया जाता।
न्याय सस्पेंड हो गया।
बजाओ ताली। तुमने ही चुना है।